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कहानी खत्म हो गई
१३
 


लेकिन कमांडर भार्गव बेचैन हो रहे थे। उन्होंने इतमीनान से कुर्सी पर आसन जमाते हुए कहा-कहे जानो, कहे जाओ दोस्त; मामला ठण्डा मत होने दो। उन्होंने नई सिगरेट सुलगाई।

मैंने आगे कहना प्रारम्भ किया:

वह मुझे देखकर लजाई थी, मुस्कराई थी, भाभी की ओट में छिप गई थी, छिपकर उसने फिर मुझे देखा था। वह सब-देखना, मुस्कराना, छिपना, लजाना अब सिनेमा की तस्वीर की भांति अनेक वार, सौ बार, हज़ार बार तेजी से मेरी आंखों में घूम रहे थे। मेरा सिर घूम रहा था। धरती-आसमान भी सब शायद घूम रहे थे।

बहुत देर तक मेरी यही हालत रही। पर फिर मुझे ज़रा-सी नींद आ गई। जगने पर मेरा मन कुछ शान्त था। मुझमें समझ आ गई थी। अभी हृदय मेरा कोरा था, तारुण्य मेरा निर्दोष था। इस प्रथम विकार पर मुझे लज्जा आई। मुझे लगा, यह खराब बात है। गांव की सभी बहू-बेटियां मेरी बहनें हैं। पिताजी ने कई बार यह कहा है: हम ज़मींदार हैं, इससे और भी हमारा गौरव बढ़ जाता है। मुझे ऐसा न सोचना चाहिए। यह मेरी प्रतिष्ठा-मर्यादा के सर्वथा विपरीत है। मैं मन ही मन अपने को धिक्कारने लगा और एकबारगी ही उसे मन से निकाल फेंका।

लेकिन कहां? पलंग से उठते ही मैं खिड़की में आ खड़ा हुआ, और नीचे प्रांगन में चारों ओर देखने लगा, जैसे कुछ खो गया हो। किसे भला? यह मैंने अपने मन से पूछा। और जब मन ने कहा-'उसीको' तो मैं अपने पर बहुत झुंझलाया। वैसे ही कमीज़ पहने मैं नीचे उतरा और सीधा बाग की तरफ चल दिया। देर तक बाग में और नहर की पटरी पर फिरता रहा। माली से बातें कीं। मुझे प्रसन्नता हुई कि वह तूफान खत्म हो गया। अब उसकी कभी याद न करूंगा। वाहियात बात पर रात को बहुत देर तक नींद न आई। उसका वह मुस्कराना, लजाकर भाभी की ओट में छिपकर देखना! वाहियात! वाहियात! ये सब खुराफात, गंदी बातें हैं। भला इनसे मुझे क्या सरोकार!

लेकिन नींद नहीं आ रही थी। मैंने एक मोटी-सी कानून की किताब उठा ली, और एक कठिन कानूनी नुक्ते पर कुछ रूलिंग्स पढ़ने लगा। लेकिन वहां तो प्रत्येक अक्षर की ओट से वह झांक रही थी, मुस्करा रही थी। धुत्!