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कलकत्ते में एक रात
 

चादर का आवरण हटाया। उस अन्धकार में भी मैं उस मोहक लावण्य को देख-कर विचलित हो गया। उसने कहा-एक औरत से डरते हो?

'डरता नहीं हूं।'

'तब चले आयो।'

वह बिना मेरा मत जाने ही चल दी। मैं मन्त्रमुग्ध की भांति उसके पीछे चल दिया।

सड़क से गलियों में और गली से एक बहुत ही सकरी गली में वह घुसती ही चली गई। अन्त में एक मकान के द्वार पर जाकर उसने कुछ संकेत किया। एक बूढ़े आदमी ने आकर द्वार खोल दिया। वह मेरी तरफ भीतर आने का संकेत कर आगे बढ़ गई। मैं भी धड़कते हृदय से भीतर घुसकर उसके पीछे-पीछे चल दिया। मेरे भीतर आने पर बूढ़ा द्वार अच्छी तरह बन्द करके हमारे पीछे-पीछे आने लगा।

दूसरी मंजिल पर पहुंचकर उसने बूढ़े से कहा—बाबू को तुम ऊपर ले जाकर बैठाओ। मैं अभी आती हूं। यह कहकर वह तेजी से आगे बढ़ गई। मैं वहीं खड़ा उस बूढ़े का मुंह देखने लगा। उस स्थान पर बहुत अन्धकार न था, फिर भी बूढ़े का चेहरा साफ-साफ नहीं दिखलाई पड़ता था। उसने अदब से झुककर कहा चलिए। वह आगे-आगे चल दिया।

मैं उसके पीछे चढ़ता ही गया। चौथी मंजिल पर एक खुली छत थी। उस पर एक अच्छा खासा कमरा था। कमरा बंद था। बूढ़े ने अपनी जेब से चाभी निकालकर उसे खोला, स्विच दबाकर ज्वलंत रोशनी करके मुझे भीतर आने का . इशारा किया। भीतर कदम रखते ही मैं दंग रह गया। वह कमरा ऐसे अमीरी ठाठ से सजा हुआ था कि क्या कहूं? दीवारों पर खूब बढ़िया तस्वीरें लगी थीं। एक ओर पीतल के काम का कीमती छपरखट पड़ा था। फर्श पर आधे में ईरानी कालीन बिछा था, और शेष आधे में बालिश्त-भर मोटा गद्दा, जिसपर स्वच्छ चांदनी बिछी थी। दस-बारह छोटे-बड़े तकिये उसमें सजे थे। फर्नीचर बहुत नफासत से सजाया गया था। कई वाद्ययन्त्र और ग्रामोफोन केबिनेट भी वहां रखे थे।

यह सब कुछ देखकर मेरी आंखें चौंधिया गईं। एक भिक्षुक स्त्री का यह ठाठ। उसका मुझे फंसाकर लाने में क्या अभिप्राय हो सकता है। वह भिक्षुकी तो है नहीं,