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कहानी खत्म हो गई
 

 निखर गया था, अंग भर गए थे और रूप की दुपहरी उसपर चढ़ी थी। अथवा एक ही शब्द में कहूं तो वह इस समय वसन्त की फुलवारी हो रही थी। एकाएक मैंने उसे पहचाना नहीं, पर दूसरे ही क्षण जब उसने उठकर हाथ जोड़कर मुस्कराकर मुझे प्रणाम किया, मैंने उसे पहचान लिया। हाय री तकदीर! वही मुस्कराहट, वही चितवन! क्षण-भर को मेरे शरीर में रक्त की गति रुक गई और मेरे पैर कांपने लगे। साहस करके मैंने पूछा, 'अच्छी हो तो उसने लाज से सिर झुकाकर सिर्फ 'जी' कह दिया।

छी, छी! फिर वह भूली हुई बातें न जाने कहां से जीवित हो उठीं। वही मुस्कराना, छिपना और आंखें मैं तेज़ी से वहां से भाग पाया। सीधा ऊपर जा दरवाज़ा बन्दकर अपने शयनागार में आ पड़ा। एक आहत हिरन की भांति, जिसे अभी-अभी शिकारी ने तीर मारा हो।

उस दिन मैंने खाना नहीं खाया। सिरदर्द का बहाना करके पड़ा रहा। सुषमा की परेशानी ने मुझे और भी पागल बना दिया। कभी यूडीकोलोन सिर पर डालती, कभी नर्म-गर्म हथेलियों से सिर दबाती, कभी बाल सहलाती, कभी डाक्टर बुलाने का आग्रह करती। मुझ बेईमान, पाखण्डी, मक्कार के लिए वह उस एक ही दिन में आधी रह गई।

मैंने जलती हुई आंखों से मिसेज़ शर्मा की ओर देखा और कहा-कहिए, कहिए, अब भी आपको सुषमा पर ईर्ष्या होती है, परन्तु अभी ज़रा और ठहर जाइए!

एकाएक मेरी आवाज़ मुर्दे की जैसी मरी हुई हो गई। खूब ज़ोर लगाकर मैं कहने लगा:

दूसरे दिन सुबह होते ही मैं ज़मींदारी के जरूरी काम का बहाना करके इलाके पर चला गया। छ:-सात दिन तक मैं घर नहीं लौटा। आप दाद दीजिए मेरे जानवरपन की, जबकि सुषमा की यह हालत थी, इस कदर नाजुक; कोई उसे देखनेवाला न था। पहली ही डिलीवरी थी उसे, और मैं नफ्स का गुलाम कहां, किस हालत में फिर रहा था। मैं आपसे नहीं छिपाना चाहता कि मुझे न खाना भाता था, न नींद आती थी; न दिन में चैन पड़ता था, न रात को कल पड़ती थी। वही शैतान आंखें, वही मुंह छिपाकर मुस्कराना, वही गहरे गुलाबी गाल, कम्बख्त न जाने कहां से उभरे चले आते थे, मेरी बदनसीब नज़रों में? जैसे मेरे रक्त की