पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/१८

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प्रत्येक बूंद में उन आंखों का खेत उग आया था। उस चितवन की, उस मुस्कान की रिमझिम बरसात हो रही थी। जी हां, एक क्षण को भी मैं उसे न भूल सका, एक क्षण को भी मैंने सुषमा को याद नहीं किया, एक क्षण को भी मैंने उसकी असहायावस्था पर गौर न किया। अन्त में मैंने अपने-आपको धिक्कारा, मन में पक्का इरादा किया, उस शैतान को मैं गांव से निकाल दूंगा, एक क्षण भी न रहने दूंगा।

सातवें दिन मैं घर लौटा। अभी दहलीज़ पार करके मैं सुषमा के कमरे में जा ही रहा था कि देखता क्या हूं, सामने से वह आ रही है। मुझे देखकर वह ठिठक रही। निकट आने पर उसने मुस्कराकर और हाथ जोड़कर मुझे नमस्कार किया। फिर वह मुस्कराती हुई ही चली गई। अजी, मुस्कराती हुई नहीं, मेरे मन में छिपी समूची वासना का सांगोपांग विवरण पढ़ती हुई। वह गहरे लाल रंग का लहंगा और उसपर चिलकेदार दुपट्टा लिए हुई थी।

भाड़ में जाए यह! गुस्से से होंठ चबाता हुआ मैं सुषमा के कमरे में पहुंचा। कल ही से उसे ज्वर था। मुझे देख वह मुस्कराई और मैं उसकी जलती हुई हथेलियों को मुट्ठी में दबाए देर तक चुपचाप बैठा रहा। कुछ बोलने की ताव ही न रही। सुषमा ही बोली। उसने कहा:

'गुमसुम क्यों हो?'

'कुछ नहीं। बहुत थक गया हूं, बहुत दौड़-धूप की है।'

सुषमा एकदम व्यस्त हो उठी। वह लेटी न रह सकी। उसने अधीर स्वर में कहा-मुंह कैसा सूख गया है! बिस्तर लगवाती हूं, ज़रा सो रहो।--उसने आवाज़ दी–अरी और वह आ खड़ी हुई। मैंने उसकी ओर नहीं देखा। सुषमा ने कहा-ज़रा झटपट यहीं बिस्तर लगा दे। बाबू की तबियत ठीक नहीं है।

मैंने बहुत ना-नूं की। वहां सुषमा के सामने मैं अपनी दुर्बलता प्रकट नहीं करना चाहता था। मैंने कहा-नहीं, नहीं, ऐसा ही है तो मैं ऊपर अपने कमरे में जा सोऊंगा। मगर तुम आराम करो। तुम्हें ज्वर है।

पर उस साध्वी पतिप्राणा को अपने ज्वर की क्या चिन्ता थी! या उसे उस पाखण्डी के मन का ही हाल मालूम था? उसने कहा-तो जा बहिन, ऊपर ही जाकर बिस्तर लगा दे।

मेरा निषेधसुषमा ने माना नहीं। उसे भेज दिया..मैं जड़ बना वहीं बैठा रहा। वह लौटकर आई। उसी तरह मुस्कराकर उसने कहा-भैयाजी का बिछौना