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मेहतर की बेटी का भात
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दूसरे दिन नावों का पुल पार करके चौधरी लालकिले पहुंचे और बादशाह को दीवाने-आम में जाकर मुजरा किया, कोर्निश की। बादशाह ने नज़रे-इनायत चौधरी पर डाली। कुशल-प्रश्न पूछा। और शाही मेहमानखाने में डेरा दिया। मोदी के नाम परवाना जारी कर दिया कि खाने-पीने की सब रसद चौधरी को मिल जाए। परन्तु चौधरी ने हाथ बांधकर कहा-जहांपनाह, मुझ सेवक को मुहलत मिलनी चाहिए।

'कैसी मुहलत?'

'मालगुजारी की रकम घर से लाने की मुहलत?'

'इसके क्या माने? क्या तुम मालगुजारी की रकम लेकर घर से नहीं चले थे?'

'घर से तो रकम लेकर ही चला था हुजूर।'

'तो क्या रास्ते में डाका पड़ा? रकम लुट गई?'

'जी नहीं, लुट नहीं गई। खर्च हो गई।'

बादशाह की त्यौरियां चढ़ गईं। उन्होंने समझा बेअदबी की जा रही है। पर चौधरी रूपराम ने दस्त-बस्ता सारी घटना बादशाह के रूबरू अर्ज़ कर दी। सुनकर बादशाह कुछ देर चुप खामोश बैठे रहे। फिर उन्होंने गीली आंखों से चौधरी की ओर देखकर कहा:

'मालगुजारी तो तुम उसी वक्त अदाकर चुके चौधरी,जब घर से रकम चले। अब वह रकम हमारी थी। और मेहतर की बेटी को भात तुम्हारी ओर से नहीं, हमारी ओर से अदा किया गया है। इसके बाद ही बादशाह ने मीर मुन्शी को बुलाकर हुक्म दिया-चन्द जड़ाऊ ज़ेवर, कपड़े और कुछ नकदी और वहां पहुंचा दो और कह दो कि यह शाही भात बादशाह ने तुम्हारी बेटी को दिया है।