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सिंहगढ़-विजय
 

नोई उस बाग तक साथ आए थे। उन्हें लौटते देर न हुई, ज्योंही हम लोग इस खेड़े के निकट पहुंचे, कोई पांच सौ यवन सैनिकों ने धावा बोल दिया। मेरे साथ केवल आठ आदमी थे। शायद सभी मारे गए। मैंने यथासाध्य विरोध किया, पर कुछ न कर सका। वे बहिन का डोला ले गए। मैंने मूर्छित होने से प्रथम अच्छी तरह देखा, पर मैं तलवार पकड़ ही न सका, फिर मेरी तलवार टूट भी गई थी। युवक उद्वेग से मूर्छित हो गया।

महाराज ने होंठ चबाया। एक बार उन्होंने अपने सिंह के समान नेत्रों से उस चीर-लालटेन के प्रकाश में चारों ओर देखा-टूटी तलवार, वर्डा, दो-चार लाशें और रक्त की धार। उन्होंने युवक से कहा-तुम्हारे घर पर कौन है?

'वृद्धा विधवा माता।'

'गांव कौन है?'

'मौरावां।'

'आठ कोस होगा।'

'तुम्हारा नाम?'

'तानाजी।'

'घोड़े पर चढ़ सकोगे?'

'जी।'

महाराज और धांधूजी ने युवक को घोड़े पर लादा। धांधूजी उसके पीछे बठे, और महाराज भी अपने घोड़े पर सवार हुए। इस बार ये यात्री अपना पथ छोड़कर युवक के आदेशानुसार गांव की ओर बढ़े, पगडंडी सकरी और बहुत खराब थी। जगह-जगह पानी भरा था, पर जानवर सधे हुए और बहुत असील थे। गांव निकट आ गया। युवक के बताए मकान के द्वार पर जाकर धांधूजी ने थपकी दी। एक युवक ने आकर द्वार खोला। धांधूजी ने उसकी सहायता से घायल तानाजी को उतारकर घर में पहुंचाया। संक्षेप में दुर्घटना का हाल सुनकर गृह-पति मर्माहत हुआ। धांधूजी ने अवकाश न देखकर कहा-तुम लोग परसों इसी समय हमारे यहां आने की प्रतीक्षा करना और इस घटना का कहीं भी जिक्र न करनी।

तानाजी ने व्यग्र होकर कहा-महोदय, आपका परिचय? मैं किसके प्रति