पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/१९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१९८
सिंहगढ़-विजय
 

'यदि फल की आकांक्षा करोगे, तो धैर्य से च्युत हो जाओगे और कदाचित्क र्तव्य से भी।'

'प्रभो, मैं अपनी भूल समझ गया।'

'जागो पुत्र, महाराज की सेवा में रहो, विजयी बनो। भारत के दुर्भाग्य को नष्ट करो। नवीन जीवन, नवीन युग का प्रवर्तन करो। धर्म, नीति, मर्यादा और सामाजिक स्वातन्त्र्य के लिए प्राण और शरीर एवं स्वार्थों का विसर्जन करो।'

युवक ने गुरु-चरणों में मस्तक नवाया। संन्यासी के नेत्रों में आंसू आ गए। उन्होंने कहा-वत्स जानो, जागो। संन्यासी को अधिक प्राप्यायित न करो। वीतराग संन्यासी किसी के नहीं।

इसके बाद उन्होंने महाराज से एक संकेत किया। महाराज संन्यासी को अभिवादन कर घोड़े पर चढ़े। एक घोड़े पर युवक चढ़ा, और धीरे-धीरे वे उस पर्वत-शृंग से उतर चले।

संन्यासी शिलाखंड की भांति अचल रहकर उन्हें देखते रहे, जब तक कि वे आंख से ओझल नहीं हो गए।

ग्राम में बड़ा कोलाहल था। बालक धूम मचा रहे थे। और, विविध वस्त्र पहने स्त्री-पुरुष काम-काज में व्यस्त इधर से उधर दौड़-धूप कर रहे थे। तानाजी का विवाह था। द्वार पर नौबत झर रही थी। आगतजनों की काफी भीड़ थी।

सन्ध्या होने में अभी विलंब था। एक श्रमिक, शिथिल सांड़नी-सवार ने नगर में प्रवेश किया। थोड़े-से बालक कौतूहल-वश उसके पीछे हो लिए। ग्राम के चौराहे पर जाकर उसने अपनी बगल से छोटी-सी तुरही निकालकर फूंकी। देखते-देखते दस-बीस नर-नारी और बहुत-से बालक एकत्र हो गए। सवार ने एक वृद्ध को लक्ष्य करके कहा मुझे तानाजी के मकान पर अभी पहुंचना है।

तुरन्त दस-पांच आदमी साथ हो लिए। सम्मुख ही तानाजी का घर था। वहां पहुंच कर उसने फिर तुरही बजाई। कोलाहल बन्द हो गया। सभी व्यग्र होकर आगंतुक को देखने लगे। उसने ज़रा उच्च स्वर से पुकारकर कहा-छत्रपति शिवा-जी महाराज की जय हो! मैं तानाजी के पास महाराज का अत्यावश्यक सन्देश लेकर आया हूं। अभी तत्क्षण तानाजी से मुलाकात न होने से महाराज विपत्ति में पड़ेंगे। उपस्थित जनमंडल ने चिल्लाकर कहा-छत्रपति महाराज की जय!