हल्दी से शरीर लपेटे, ब्याह का कंगना हाथ में बांधे तानाजी बाहर निकल आए। धावन ने उन्हें पत्र दिया। पत्र पढ़कर तानाजी क्षण-भर को विचलित हुए। इसके बाद ही उन्होंने अग्निमय नेत्रों से उपस्थित जनसमूह को देखा। वे उछल-कर एक ऊंचे स्थान पर चढ़ गए, और गम्भीर, उच्च स्वर से कहना प्रारम्भ किया सज्जनो! महावीर छत्रपति महाराज ने मुझे इसी क्षण बुलाया है। बीजापुर-शाह महाराज पर चढ़ दौड़े हैं। यह शरीर और प्राण महाराज का है। फिर बहिन के प्रतिशोध का भी यही महायोग है। मैं इसी क्षण जाऊंगा। आप लोग कल प्रात:-काल ही प्रस्थान करें। विवाह-समारोह अनिश्चित समय के लिए स्थगित किया गया।
तानाजी बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए चीते की भांति उछलकर कूद पड़े, और घर में चले गए। कुछ ही क्षण बाद वह अपने प्यारे बर्छ और विशाल तलवार के साथ सज्जित होकर घोड़े पर सवार हुए। विवाह का आनन्द-समारोह स्तब्ध हो गया। पिता और गुरुजन को प्रणाम कर उन्होंने बढ़ते हुए संध्या के अंधकार में डूबते हुए सूर्य को लक्ष्य कर उन दुर्गम पर्वत-उपत्यकाओं में घोड़ा छोड़ दिया।
'महाराज की जय हो, मेरी एक विनती है।'
'क्या कहते हो?'
'बीजापुर की सेना परसों अवश्य ही दुर्ग पर आक्रमण करेगी।'
'सो तो सुन चुका हूं।'
'दुर्ग की पूरी मरम्मत नहीं हो पाई है, ऐसी दशा में वह आक्रमण न सह सकेगा।
'मालूम तो ऐसा ही होता है।'
'परन्तु कल सन्ध्या तक दुर्ग बिलकुल सुरक्षित हो जाएगा।'
'यह तो अच्छी बात है।'
'परन्तु महाराज, अपराध क्षमा हो।'
'कहो।'
'एक निवेदन है।'
'क्या?'
'केवल एक-एक मुट्ठी चना मेरे सैनिकों और मजदूरों को मिल जाए, तो फिर