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सिंहगढ़-विजय
२०१
 

फिरंगी चला गया। महाराज अत्यन्त चंचल गति से टहलने लगे। रात्रि का अन्धकार आया। तानाजी मशालें लिए किले की मरम्मत में संलग्न थे। महाराज बुलाकर कहा-तानाजी, अब समय आ गया। अभी सारी सेना को तैयार होने का आदेश दे दो।

'जो आज्ञा महाराज, कूच कहां को करना होगा?'

'इस फिरंगी का जहाज़ लूटना होगा।'

तानाजी आंखें फाड़-फाड़कर देखने लगे। क्षण-भर बाद बोले-महाराज की जय हो! यह क्या आज्ञा दे रहे हैं?

महाराज ने लपककर तानाजी की कलाई कसकर पकड़ ली। उन्होंने कहा-युवक सेनापति! देखते हो, दुर्ग छिन्न-भिन्न और अरक्षित है। सेना के पास न शस्त्र, न घोड़े, और खजाने में इनको देने के लिए एक मुट्ठी चना भी नहीं। उधर विजयिनी यवन-सेना बीजापुर से धावा मारकर आ रही है। क्या मैं समय और उपाय रहते पिस मरूं? ये हथियार भवानी ने मुझे दिए हैं। छोड़गा कैसे? उस फिरंगी को कैद कर लो। उसे रुपया देकर मुक्त कर दिया जाएगा। जानो, सेना को अभी तैयार होने का आदेश दो। ठीक दो पहर रात्रि व्यतीत होते ही कूच होगा। तानाजी कुछ कह न सके। वह सेना को आदेश देने चल दिए। महाराज बैठे-बैठे ऊंघ रहे थे। पीछे दो शरीर रक्षक चुपचाप खड़े थे। ताना-जी ने सम्मुख पाकर कहा-महाराज की जय हो, कूच का समय हो गया है, सेना तैयार है।

महाराज चौंककर उठ बैठे। वे चमत्कृत थे। उन्होंने कहा-तानाजी?

'महाराज।'

'मुझे भवानी ने स्वप्न में आदेश दिया है।'

'वह कैसा आदेश है महाराज!'

'यह सम्मुख मन्दिर की पीठ दिखाई पड़ती है न?'

'हां, महाराज।

'अभी मैं बैठे-बैठे सो गया, इसमें वह जो मोखा है, उसमें से एक रत्नजटित गहनों से लदा हुआ हाथ निकलकर इसी स्थान की ओर संकेत करने लगा। मैंने स्पष्ट सुना, किसीने कहा-यहीं खोदो।'