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सिंहगढ़-विजय
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रही है। आज इसी गांव में उनका अंत होगा, और वीरता का सेहरा इस गांव के नाम बंधेगा।'

ग्रामवासियों ने उत्साह से कहा-हम तैयार हैं, हम प्राण देंगे।

'भाइयो, हमारी विजय होगी। प्राण देने की आवश्यकता नहीं। अभी दोपहर का समय हमें है। आओ, घाटी का उस पार का द्वार वृक्षों और पत्थरों से बंद कर दें और सब लोग पर्वतों पर चढ़कर छिप बैठे। बड़े-बड़े पत्थर इकट्ठे रखें, ज्योंही यवनदल घाटी में घुसे, देखते रहो। जब सब सेना घाटी में पहुंच जाए, ऊपर से पत्थरों की भारी मार करो। पीछे के मार्ग को महाराज शिवाजी स्वयं रोकेंगे।' समस्त गांव जय शिवाजी महाराज कहकर कार्य में जुट गया।

प्रातःकाल होने से पूर्व ही यवन दल तेज़ी से घाटी में घुसा। तानाजी पीछे धावा मारते आ रहे हैं, यह वे जानते थे। घाटी पार करने पर वे सुरक्षित रहेंगे, इसका उन्हें विश्वास था। परन्तु एकबारगी ही आगे बढ़ती हुई सेना की गति रुक गई। बड़ी गड़बड़ी फैली। कहां क्या हुआ, यह किसीने नहीं जाना। परन्तु घाटी का द्वार भारी-भारी पत्थरों और बड़े-बड़े वृक्षों को काटकर बन्द कर दिया गया था। उसके बाहर खड़े ग्रामवासी और सवार दरारों के द्वारा तीर छोड़ रहे थे। सारी यवन सेना में गड़बड़ी फैल गई। यवन सेनापति ने पीछे लौटने की आज्ञा दी। परन्तु अरे! यहां तानाजी की सेना मुस्तैदी से खड़ी तीर फेंक रही थी। अब एक और भारी विपत्ति आई। ऊपर से अगणित बाणों की वर्षा होने लगी, और भारी-भारी पत्थर लुढ़कने लगे। घोड़े, खच्चर, सिपाही सभी चकनाचूर होने लगे। भयानक चीत्कार मच गया। मुहाने पर दो-चार सिपाही पाकर युद्ध करके कट गिरते थे। लाशों का ढेर हो रहा था।

यवन सेनापति ने देखा, प्राण बचने का कोई मार्ग नहीं। सहस्रों सिपाही मर चुके थे। जो थे, वे क्षण-क्षण पर मर रहे थे। उसने तानाजी से कहला भेजा, खज़ाना ले लीजिए और हमारी जान बख्श दीजिए।

तानाजी ने हंसकर कहा--जान बख्श दी जाएगी, पर खज़ाना, हथियार और घोड़े तीनों चीजें देनी होंगी।-विवश यही किया गया।

एक-एक मुगल सिपाही आता, घोड़ा और हथियार रखकर एक ओर चल देता। ग्रामवासियों ने मार बन्द कर दी थी। बहुत कम यवन सैनिक प्राण बचा