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कहानी खत्म हो गई
२१
 

 समझ रही है। यह कुछ झूठ भी न था। मैंने अन्त में कहा-मुझसे तुम क्या चाहती हो? मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं? आखिर मैं एक इज्जतदार आदमी हूं। तुम्हें यह सोचना चाहिए।..

'सोचकर ही तो कह रही हूं।' 'क्या तुम कुछ रुपया-पैसा चाहती हो?'

'नहीं।'

'तब क्या चाहती हो?'

"अपनी इज़्ज़त बचाना। आप राजा-रईस हैं, मैं गरीब, अनाथ, विधवा, रांड स्त्री हूं। जिस परिस्थिति में मैं फंस गई हूं उसके लिए मैं अकेले' आपको ज़िम्मेवार नहीं ठहरा सकती। दुर्बलता मेरी भी थी। फिर, मैं तुच्छ स्त्री हूं। सभी भोग मैं भोग लूंगी पर इज़्ज़त-आबरू मेरी भी है। मेरे पिता आपके एक ईमानदार सेवक थे। मैं आपके गांव की बेटी हूं, मेरी बदनामी गांव की बदनामी है। वह मैं न होने दूंगी, इसमें आप मेरी मदद कीजिए।'

'लेकिन कैसी मदद? रुपया-पैसा तो तुम चाहती ही नहीं।'

'जी नहीं।'

'तब मैं क्या करूं?'

'गांव के किसी इज्ज़तदार गरीब ठाकुर से मेरा ब्याह करा दीजिए।'

'इज्ज़तदार ठाकुर क्यों ब्याह करने को राजी होगा?'

'आप कहेंगे तो होगा। मेरा सहारा हो जाएगा। मेरा कलंक ढका रह जाएगा। और मैं अपनी सेवा से उसे प्रसन्न कर लूंगी।'

अब आप मेरे दिल की बात भी सुन लीजिए। मेरे आँखों में अब मेरे पुत्र का निर्मल हास्य खेल रहा था। सुषमा प्रसव के बाद मसूरी से लौटने पर अधिक आकर्षक हो गई थी। मैं अपनी लम्पट वृत्ति पर खीझ रहा था। न जाने मुझे क्या हो गया था उस समय। यही मैं सोचता रहता था। और अब वह आग तो सर्वथा बुझ चुकी थी। पर उससे जलकर जो फफोला पड़ गया था, वह इतना भारी जंजाल हो उठेगा, यह मैंने कभी न सोचा था। और अब मुझे इस औरत में कोई दिलचस्पी भी न थी। इससे सब भांति पीछा छुड़ाने और भविष्य में अपने दाम्पत्य का पूरा आनन्द लेने को मैं बेचैन था। कुछ रुपये-पैसे की बात होती तो मैं उसे दे देता। पर उसका ब्याह रचाना, यह तो एक नया सिरदर्द था। अब भला मैं किसको कहूँ?