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मास्टर साहब
२१९
 

पेट के झोले को भर लिया जाए, तो ही बहुत है।

उसने रात का बासी भोजन लाकर पति के सामने रख दिया। मास्टर साहब चुपचाप खाकर स्कूल को चले गए।

भामा ने कहा--बिना कहे तो रहा नहीं जाता, अब तेली, तम्बोली, दूधवाला आकर मेरी जान खाएंगे। क्या कहूं उनसे, बोलो तो? तुम्हें तो अपनी इज्जत का खयाल ही नहीं, पर मुझसे तो इन नीचों के तकाज़े नहीं सहे जाते।

मास्टरजी ने धीमे स्वर में नीची नज़र करके कहा-करूंगा प्रबन्ध, जाता हूं।

'लेकिन, क्यों सहती हो बहिन, इन पुरुषों की प्रभुता का जुआ हमें अपने कंधे पर से उतार फेंकना होगा, हमें स्वतन्त्र होना होगा, हम भी मनुष्य हैं-पुरुषों ही की भांति। कोई कारण नहीं जो हम उनके लिए घर-गिरस्थी करें, उनके लिए बच्चे पैदा करें और जीवन-भर उनकी गुलामी करती हुई मर जाएं।'

भामा की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा-यही तो मैं भी सोचती हूं श्रीमतीजी! आप ही कहिए, चालीस रुपये की नौकरी, फिर दूध-धोए भी बने रहना चाहते हैं। आप ही कहिए, दुनिया के एक कोने में एक से एक बढ़ कर भोग हैं, क्या मनुष्य का दिल उन्हें भोगना न चाहेगा?

'क्यों नहीं, फिर वे भोग बने किसके लिए हैं? मनुष्य ही तो उन्हें भोगने का अधिकार रखता है।'

'यही तो, पर पुरुष ही उन्हें भोग पाते हैं। वे ही शायद मनुष्य हैं, हम स्त्रियां जैसे मनुष्यता से हीन हैं।'

'हमें लड़ना होगा, हमें संघर्ष करना होगा। हमें पुरुषों की बराबरी की ही होकर जीना होगा। इसी उद्देश्य-पूर्ति के लिए हमने यह आज़ाद महिला-संघ खोला है। तुम्हें चाहिए कि तुम इसमें सम्मिलित हो जाओ। इसमें हम न केवल स्वतन्त्रता की-पाठ पढ़ाते हैं, बल्कि स्त्रियों को स्वावलम्बी रहने के योग्य भी बनाते हैं। हमारा एक स्कूल भी है, जिसमें सिलाई, कसीदा और भांति-भांति की दस्तकारी सिखाई जाती है। गायन-नृत्य के सीखने का भी प्रबन्ध है। हम जीवन चाहती हैं, सो हमारे संघ में तुम्हें भरपूर जीवन मिलेगा।'

'तो मैं श्रीमतीजी, आपके संघ और स्कूल दोनों ही की सदस्य होती हूं। जब वे स्कूल चले जाते हैं, मैं दिन-भर घर में पड़ी उनके आने का इन्तजार करती