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मास्टर साहब
 

रहती हूं। सो भी इस अवस्था में नहीं कि वे मेरे लिए कुछ उपहार लेकर आते होंगे या मेरे पास बैठकर दो बोल हंस-बोल लेंगे। ईश्वर जाने कैसी ठण्डी तबियत पाई है। चुपचाप आते हैं, थके हुए, परेशान-से, और पूरे सुस्ता भी नहीं पाते कि ट्यूशन। प्रभा है, उनकी लड़की, उसीसे रात को हंसते-बोलते हैं। कहिए, यह कोई जीवन है? नरक, नरक; सिर्फ मैं हूं जो यह सब सहती हूं।'

'मत सहो, मत सहो, बहिन, अपने आत्मसम्मान और स्वाधीनता की रक्षा करो।'

'यही करूंगी श्रीमतीजी, यही करूंगी।'

'तो कल आना। हमारा वार्षिकोत्सव है, बहुत-सी बड़ी-बड़ी देवियां पाएंगी उनके भाषण होंगे, भजन होंगे, नृत्य होगा, गायन होगा, नाटक होगा, प्रस्ताव होंगे और फिर प्रीतिभोज होगा। कहो, आयोगी न?'

'अवश्य पाऊंगी, अब जाती हूं।'

'अब जाओ फिर। तुम्हें देखकर चित्त प्रसन्न हुआ। याद रखो, तुम्हारी जैसी ही देवियों के पैरों पड़ी परतन्त्रता की बेड़ियां काटने के लिए हमने यह उद्योग किया है।'

'आप धन्य हैं श्रीमतीजी, नमस्ते।'

'नमस्ते।'

भामा ने बड़ी उत्सुकता से वह रात काटी और वह अपनी समझ में पूरी तैयारी के साथ सज-धजकर जब उस जलसे में गई तो हद दरजे चमत्कृत और लज्जित होकर लौटी। चमत्कृत हुई वहां के वातावरण से, व्याख्यानों से, कविताओं और नृत्य से, मनोरंजन-प्रकारों से। उसने देखा, समझा-अहा, यही तो सच्चा जीवन है, कैसा आनन्द है, कैसा उल्लास है, कैसा विनोद है! परन्तु जब उसने अपनी हीनावस्था का वहां आनेवाली प्रत्येक महिला से मुकाबला किया तो लज्जित हुई। उसने दरिद्र, निरीह पति से लेकर घर की प्रत्येक वस्तु को अत्यन्त नगण्य, अत्यन्त क्षुद्र, अत्यन्त दयनीय समझा, और वह अपने ही जीवन के प्रति एक असहनीयविद्रोह और असन्तोष-भावना लिए बहुत रात गए घर लौटी।

मास्टर साहब उसकी प्रतीक्षा में जागे बैठे थे। पिता की कहानियां सुनते-सुनते थककर सो गई थी। भोजन तैयार कर, आप खा और प्रभा को खिला,