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मास्टर साहब
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पत्नी के लिए उन्होंने रख छोड़ा था।

भामा ने आते ही एक तिरस्कार-भरी दृष्टि पति और उस शयनागारपर डाली, जो उसके कुछ क्षण पूर्व देखे हुए दृश्यों से चकाचौंध हो गई थी। उसे सब-कुछ बड़ा ही अशुभ, असहनीय प्रतीत हुआ। वह बिना ही भोजन किए, बिना ही पति से एक शब्द बोले, बिना ही सोती हुई फूल-सी प्रभा पर एक दृष्टि डाले चुपचाप जाकर सो गई।

मास्टर साहब ने कहा-और खाना?

'नहीं खाऊंगी।'

'कहां खाया?'

'खा लिया।'

और प्रश्न नहीं किया। मास्टर साहब भी सो गए।

भामा प्रायः नित्य ही महिला-संघ में जाने लगी। उन्मुक्त वायु में स्वच्छन्द सांस लेने लगी; पढ़ी-लिखी, उन्नतिशील कहानेवाली लेडियों-महिलाओं के संपर्क में आई; जितना पढ़ सकती थी, पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ने लगी। उसने सुना—उन महामहिम महिलाओं में, जो सभाओं और जलसों में ठाटदार साड़ी धारण करके सभानेत्रियों के पासन को सुशोभित करती हैं, चारों ओर स्त्री-पुरुष जिनका आदर करते है, जिन्हें प्रणाम करते, हंस-हंसकर झुककर जिनका सम्मान करते हैं, उनमें कोई घर को त्याग चुकी है, कोई पति को त्याग चुकी है; उनका गृहस्थ-जीवन नष्ट हो चुका है, वे स्वच्छन्द हैं, उन्मुक्त हैं, वे बाधाहीन हैं, वे कुछ घंटों ही के लिए नहीं, प्रत्युत महीनों तक चाहे जहां रह और चाहे जहां जा सकती हैं, उन्हें कोई रोकनेवाला, उनकी इच्छा में बाधा डालनेवाला नहीं है। उसे लगा, यही तो स्त्री का सच्चा जीवन है। वे गुलामी की बेड़ियों को तोड़ चुकी हैं, वे नारियां धन्य हैं।

एक दिन सभा में जब सभानेत्री महोदया, तालियों की प्रचण्ड गड़गड़ाहट में ऊंची कुर्सी पर बैठी (उपस्थित प्रमुख पुरुषों और महिलाओं ने उन्हें सादर मोटर से उतारकर फूलमालाओं से लाद दिया था) तो भामा के पास बैठी एक महिला ने मुंह विचकाकर कहा—लानत है इसपर; यहां ये ठाट हैं, वहां खसम ने पीटकर घर से निकाल दिया है। अब मुकदमेबाजी चल रही है।