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मास्टर साहब
 

दूसरी देवी ने कुतूहल से पूछा-क्यों? ऐसा क्यों है?

'कौन अपनी औरत का रात-दिन पराये मर्दो के साथ घूमते रहना, हंस-हंस-कर बातें करना पसन्द करेगा भला? घर-गिरस्ती देखना नहीं, देशोद्धार करना या महिलोद्धार करना। और घर-बाहर अवारा फिरना।'

'तो फिर बीबी, बिना त्याग किए यों देश-सेवा हो भी नहीं सकती।'

'खाक देश-सेवा। जो अपने पति और बाल-बच्चों की सेवा नहीं कर सकती, अपनी घर-गिरस्ती को नहीं संभाल सकती, वह देश-सेवा क्या करेगी? देश के शांत जीवन में अशांति की आग अवश्य लगाएगी।'

भामा को ये बातें चुभ रही थीं। उससे न रहा गया, उसने तीखी होकर कहा-क्या चकचक लगाए हो बहिन, घर-गिरस्ती जाकर संभालो न, यहां वक्त बरबाद करने क्यों आई हो?

महिला चुप तो हो गई पर उसने तिरस्कार और अवज्ञा की दृष्टि से एक बार भामा को और एक बार सभानेत्री को देखा।

भामा सिर्फ स्त्रियों ही के जलसों में नहीं आती-जाती थी, वह उन जलसों में भी भाग लेने लगी, जिनमें पुरुष भी होते। बहुधा वह स्वयं-सेविका बनती, और ऐसे कार्यों में तत्परता दिखाकर वाहवाही लूटती। उसकी लगन, तत्परता, स्त्री-स्वातन्त्र्य की तीव्र भावना के कारण इस जाग्रत स्त्री-जगत् में उसका परिचय काफी बढ़ गया। वह अधिक विख्यात हो गई। लीडर-स्त्रियों ने उसे अपने काम की समझा, उसका आदर बढ़ा। भामा इससे और भी प्रभावित होकर इस सार्वजनिक जीवन में आगे बढ़ती गई और अब उसकी वह क्षुद्र-दरिद्र गिरस्ती, छोटी-सी पुत्री और समाज में अतिसाधारण-सा अध्यापक उसका पति, सब कुछ हेय हो गया।

वह बहुत कम घर पाती। बहुधा मास्टर साहब को खाना स्वयं बनाना पड़ता, चाय बनाना तो उनका नित्य-कर्म हो गया। पुत्री प्रभा की सार-संभार भी उन्हें करनी पड़ने लगी। वे स्कूल जाएं, ट्यूशन करें, बच्ची को संभालें, भोजन बनाएं और घर को भी संभालें। यह सब नित्य-नित्य सम्भव नहीं रहा। घर में अव्यवस्था और अभाव बढ़ गया। भामा और भी तीखी और निडर हो गई। वह पति पर इतना भार डालकर, उनकी यत्किचित् भी सहायता न करके, उनकी सारी सम्पत्ति को अधिकृत करके भी निरन्तर उनसे क्रुद्ध और