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कहानी खत्म हो गई
 


कैसे कहूं? सुनकर कोई क्या समझेगा, क्या कहेगा? इन्हीं सब बातों पर मैं देर तक विचार करता रहा। कुछ देर बाद मैंने धीमे स्वर में कहा--क्या तुमने किसी आदमी को पसन्द किया है?

'नहीं, पसन्द-नापसन्द की बात ही नहीं है, मुझे आप काना, अन्धा, बहरा, कोढ़ी, अपाहिज, बूढ़ा, किसीके पल्ले बांध दीजिए। उज्र न होगा। बस, मेरी लाज ढकी रह जाए। मेरे पिता का कुल न कलंकित हो।'

उस समय मैं उस एकान्त में उससे अधिक बात करने को सर्वथा अनिच्छुक था। मैंने केवल टालने की दृष्टि से कह दिया-अच्छा देखूँगा।

मैं चलने लगा। उसने कहा-जरा रुकिए। एक बात और है।

'क्या?'

'वह कल गढ़ी में आकर सबके सामने कहूंगी।

यहां कहना ठीक नहीं है।'

'अच्छा' कहकर मैं चल दिया।

दूसरे दिन पहर दिन चढ़े वह गढ़ी में आई। पाकर सीधी कचहरी में जाकर दीवानजी के पास जा खड़ी हुई। उसने कहा, छोटे सरकार से अर्ज करने आई हूं। दीवानजी उसे मेरे पास ले आए। धड़कते हृदय से मैं सोच रहा था, अब यह यहां किसलिए आई है। परन्तु, उसने एक साधारण रैयत की भांति अधीनता दिखाकर कहा--सरकार, मैं असहाय विधवा स्त्री हं, मेरे पिता ने मरते दम तक रियासत की ईमानदारी से सेवा की है, अब न मेरे मां-बाप हैं, न कोई हित-सम्बन्धी। आप गांव के राजा है, इसीसे मैं आपकी शरण आई हूं।

मेरा दम घुट रहा था। पर मैंने मन पर काबू रखकर पूछा-क्या चाहिए तुम्हें!

'सरकार, एक भैंस यदि मुझे खरीद दें तो उसका दूध-घी बेचकर अपना भी पेट पाल लूंगी, सरकार का भी कर्जा चुका दूंगी।'

मैंने बिना किसी आपत्ति के उसे भैंस खरीदवा दी। वह कहती तो मैं उसे दोचार हजार रुपये भी दे सकता था। मैं जानता था कि यह उसका अधिकार था। पर उसने तो मुझसे केवल वही मांगा जो कोई एक साधारण रैयत जमींदार से मांगती है। अब यह कैसे कहूं कि उसकी यह मांग मेरी प्रतिष्ठा के लिए ही थी या उसकी प्रतिष्ठा के लिए।