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मास्टर साहब
 

का दिया तो नहीं खाती।

वे स्वयं लेने आए थे। कितना घबड़ा रहे होंगे! प्रभा की क्या हालत होगी? हाय, मैं उसे, पेट की बच्ची को बुखार में तड़पती छोड़ आई! एक बार उसकी ओर देखा तक भी नहीं। सच तो यह है कि मैंने न कभी अपने पति का खयाल किया, न सन्तान का। मैं सदा अपने में असन्तुष्ट रही। अपने को देखा नहीं, सपने ही देखती रही।

वह उस नीच-कमीने नौकर से महज़ोरी करना रोक अपनी कोठरी में घस गई। द्वार भीतर से बन्द कर लिए, और फूट-फूटकर रोने लगी। दिन बीते, रातें वीती, सप्ताह बीते।

महीने और साल बीते। तीन साल बीत गए। एक दिन, दिवाली की रात को, मास्टर साहब अपने घर में दीये जला, प्रभा को खिला-पिला बहुत-सी वेदना, बहुत-सी. व्यथा, हृदय में भरे बैठे थे। वालिका कह रही थी-बाबूजी! अम्मां कब आएगी?

'आएगी बेटी, आएगी!'

'तुम तो रोज़ यही कहते हो। तुम झूठ बोलते हो बाबू जी।'

'झूठ नहीं बेटी, आएगी।'

'तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गईं?

'आज दिवाली है बाबूजी?'

'हां बेटी।'

'तुमने कितनी चीजें बनाई थीं-पूरी, कचौरी, रायता, हलुआ..."

'हां हां, बेटी, तुझे सब अच्छा लगा?'

'हां, बाबूजी, तुम कितनी खील लाए हो, खिलौने लाए हो-मैंने सब वहां सजाए हैं।

'बड़ी अच्छी है तू रानी बिटिया।'

'यह सब मैं अम्मा को दिखाऊंगी।'

'दिखाना।'

'देखकर वे हंसेंगी।'