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रानी रासमणि

जिसकी चरण-रज ने ब्राह्मणों के ललाट को भी पावन किया, उसो 'शूद्रा' रानी रासमणि की पनीत और रोमांचक गाथा।

सन् १८५७ की बात है। उन दिनों कलकत्ता के दक्षिण अंचल में जानबाज़ार की एक बस्ती थी। जानबाज़ार में महारानी रासमणि दासी रहती थीं। रानी रासमणि बड़ी धनी और धर्मात्मा प्रसिद्ध थीं। उनकी दानशीलता की बड़ी धूम थी। उनके श्वसुर वारेन हेस्टिग्स के दाहिने हाथ थे। राजा नन्दकुमार को फांसी दिलाने में उनका बड़ा हाथ था। वारेन हेस्टिग्स की कृपा से उन्होंने बहुत धन-सम्पत्ति एकत्र कर ली थी तथा उन्हें महाराज का खिताब भी मिल गया था। उनकी मृत्यु पर उनके पुत्र महाराज रामचन्द्र बसु ने कम्पनी सरकार की अथक सेवा करके बहुत सम्पत्ति एकत्र की थी। उनकी मृत्यु को भी अब चार साल बीत चुके थे। इस समय रानी रासमणि दासी ही पति की सम्पूर्ण सम्पत्ति की अधिकारिणी थीं। इस समय उनकी अवस्था चालीस बरस की थी। उनकी संतति में चार कन्याएं थीं। तीन कन्याओं का विवाह हो चुका था, किन्तु तीसरी बेटी का प्रसव वेदना में देहान्त हो गया था, रानी ने सोचा कि अब उनके एकमात्र आधार दामाद मथुरानाथ कदाचित् उनसे नाता तोड़कर अपने घर को चले जाएं, इसलिए उन्होंने अपनी कनिष्ठा कन्या जगदम्बा का विवाह उनके साथ कर दिया था।

रानी जाति की केवट थीं। अंग्रेजों की कृपा से बहुत केवट, ग्वाले, वाग्दी आदि उन दिनों राजाबहादुर और महाराज हो गए थे। परन्तु बंगाल में ब्राह्मणों का श्रेष्ठत्व और जात-पांत का अहंकार अभी भी बहुत था। रानी रासमणि को देवी का इष्ट था। उनकी ज़मींदारी के कागज़ों पर उनकी जो मुहर लगाई जाती थी, उसमें-'कालीपद अभिलाषी श्रीमती रासमणि दासी' अंकित रहता था। रानी की बड़ी अभिलाषा थी कि वह काशी जाकर श्री विश्वनाथ को दर्शन करें। इसके लिए उन्होंने भारी रकम पृथक् रख छोड़ी थी। परन्तु उस समय बंगाल का