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रानी रासमणि
 

ने पूछा-तुम्हारा नाम क्या है भैया?

'मैं रामकृष्ण हूं। और यहां दक्षिणेश्वर में राधामाधव के शृंगार करने के कार्य पर नियुक्त हूं।'

'तुम्हारे भीतर तो भैया कोई महान आत्मा बास कर रही है। क्या तुमने भोजन किया?'

'नहीं,' कहकर बालक तेज़ी से भाग गया।

सूर्यास्त से कुछ पहले ही वह बालक रानी रासमणि को लेकर ब्राह्मण के पीस आया। रानी ने दोनों हाथ जोड़कर ब्राह्मण को प्रणाम किया। पर इससे प्रथम ही ब्राह्मण ने धरती में लोटकर रानी को साष्टांग प्रणाम किया।

रानी ने दोनों कानों पर हाथ धरकर कहा:

'यह आपने क्या किया देवता? मैं शूद्रा हूं, अस्पृश्या हूं। आपने मुझे प्रणाम किया, मुझपर पातक चढ़ाया।'

'पाप दिव्यरूपा हैं, सर्व मनुष्यों में श्रेष्ठ और पूज्या हैं। आपके दर्शन से मनुष्य की मुक्ति हो सकती है। मैं प्रातःकाल ही से आपके दर्शन करने की अभिलाषा से यहां बैठा हूं।'

'आपने भोजन नहीं किया?'

'नहीं।' '

तो भोजन कीजिए।'

'आप अपने हाथ से रांधकर भात दें तो भोजन कर सकता हूं।'

'किन्तु यह कैसे हो सकता है?

मैं जाति की केवट हूं।'

'तो इससे क्या? मैं ब्राह्मण हूं। परन्तु जो आत्मा मेरे अन्तर में वास करती है वही आपके अन्तर में भी है। भेद इतना ही है कि आप धर्मात्मा और पवित्र हैं, और मैं अधम हं।'

'शिव! शिव!! यह आप कैसी बात कहते हैं? आप ब्राह्मण हैं!'

'ब्राह्मण तो सदा सत्य बोलता है। मैंने भी सत्य कहा है। मैंने आपके सम्बन्ध में सब बातें सुनीं। ब्राह्मणों ने आपका कितना तिरस्कार किया, यह भी सुना। जाति-अभिमान में ये मूढ़ अच्छे-बुरे और धर्माधर्म का विचार भी खो बैठे हैं। फिरंगी लोग इनके सिर पर पैर रखकर जो शासन चला रहे हैं वहां इन ब्राह्मणों की चाल नहीं चलती। उन्हें माई-बाप बनाते इनको लज्जा नहीं आती। जिस