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आंके-बांके राजपूत

दोस्ती, दुश्मनी और बांकपन की अमर कहानी।

भारतीय इतिहास के राजपूत वीरों के बीते हुए आंके-बांके जीवन कुछ ऐसे अटपटे हैं कि आज की सभ्य समझ में नहीं आ सकते। उनके जीवन का दर्शन ही दूसरा था, उनके आदर्श ही दूसरे होते थे। मरने-जीने के भय-निर्भयता के नमूने आज भी सामने आते हैं, पर, आदर्शों और भावनाओं में बहुत अन्तर है। प्राचीन राजपूती जीवन में एक शौर्यपूर्ण शालीनता, एक दबंग शिष्टाचार और एक प्राणवान आदर्श था। तत्कालीन मुंगल शासकों ने अपने शासन-काल में राजपूती जीवन को हत-ओज कर दिया था, अंग्रेजों ने उसे नपुंसक किया और अब वर्तमान युगपरिवर्तन ने तो उसकी अंत्येष्टि ही कर डाली। अब तो रह गई उनकी वे उन दिनों की अलवेली कहानियां, जिन्हें भाट-चारण गांव-गांव और घर-घर जाकर सुनाया करते थे। गांव के बड़े-बूढ़े सदियों की रात में अलाव सुलगाकर गांव के सब तरुणों को आग के आसपास बैठाकर पकते हुए गुड़ की सोंधी सुगन्ध से भरे हुए वातावरण में भीगती रातों में वे कहानियां सुनाते थे, जिनसे पुराने राजपूती जीवन के किसी पहलू का परदा उठकर राजपूती चरित्र के दर्शन हो जाते थे।

सदियों की भीगती रात, पकते हुए गुड़ की सोंधी सुगन्ध से भरा वातावरण, गांव का किनारा, अलाव के चारों ओर बैठे तरुण ताप रहे थे। निश्चिन्त होकर बाजरे की रोटियां भर-पेट खाकर आकाश के टिमटिमाते तारे वे देख रहे थे। बूढ़े चारण का आज उनके गांव में आगमन हा था। आज उनकी खाट भी इसी अलाव के पास बिछी थी। अलाव से उठती हुई लाल-पीली आग की लपटों से वृद्ध चारण की लम्बी सफेद डाढ़ी कुछ अद्भुत-सी चमक रही थी। तरुणों का आग्रह थाबाबाजी, कोई कहानी सुनाइए। और चारण प्रसन्नमन यों कहानी सुनाने लगे:

जैसलमेर के सीढ़ों में कोटेचे राजपूतों का घर बहुत प्रसिद्ध था। उसकी बड़ी बेटी को ब्याहने मोहिल पड़िहार आए थे। ब्याह राजी-खुशी, धूम-धाम से हो