पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/२५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
आंके-बांके राजपूत
२५५
 

गया। बारात ब्याह करके लौटी। राह में पड़ाव पड़ा। गोठ हुई। गोठ में सोलह बकरे काटे गए। उनकी मंडियां चरवे में भरकर इस अभिप्राय से रख दी गईं कि दूसरे दिन नाश्ते के काम आएंगी।

वहां से कूच हुआ। रातोंरात बारात चली। भोर होते ही एक तालाव पर मुकाम हुआ। साथ के बाराती राजपूत नित्य-कर्म, स्नान-सेवा में लगे। दुलहिन का सुखपाल भी एक वृक्ष की छांह में उतारा गया। दासी भारी भर लाई। दुलहिन ने दातन किया, मुखमार्जन किया, स्नान किया और सिरावण (नाश्ता) मांगा।

दासी ने कहा-बाईजी, यहां और तो कुछ नहीं है, चरवे में बकरों की मूड़ियां

'वही ले आ!'

दासी चरवा उठा लाई। दासी परोसती गई और स्वस्थ दुलहिन मूड़ियां चट करती गई।

जब साथ के ठाकुरों ने जलपान की तैयारी की और नाश्ता मांगा, तब दासी से कहा गया-वह चरू उठा ला।

दासी ने हाथ बांधकर कहा-चरू क्या करोगे अन्नदाता, उसमें की चीज़ तो सब चट हो चुकी।

ठाकुरों ने सुना, तो सन्नाटे में आ गए। सब एक-दूसरे की ओर देखने लगे। पर, सबने चुप साध ली और वहां से डेरा उठाकर आगे चले। पड़िहार आए।"

इतनी कहानी सुनकर एक-दो तरुण हंसने लगे। किसीने कहा-बाबाजी, बहू का मुंह कितना बड़ा था?

चारण ने कहा-जब तुम्हारी बहू आए, तब उसका मुंह देख लेना कितना बड़ा है। अभी कहानी सुनो।-बाबाजी ने फिर कहानी आगे बढ़ाई:

घर आकर ठाकुरों की पंचायत जुड़ी। बहुत बहस-हुज्जत के बाद यह बात करार पाई कि इस बहू का भार हमसे न सहा जाएगा। बस, दुलहिन के पिता को पत्र लिख दिया गया कि तुम्हारी बेटी का निभाव हमारे यहां मुश्किल है, अपनी बेटी को ले जाओ। ठाकुर की बेटी ने भी बाप को सब हकीकत लिख दी। तब कोटेचे ठाकुर ने अपनी बेटी वापस बुला ली।

इसपर एक तरुण ने कहा-बाबाजी, क्या पड़िहारों के यहां बकरों की बहुत कमी थी?