पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/२५९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२५८
आंके-बाके राजपूत
 

नामी-गिरामी चोर और डाकू था। उसकी सेवा में एक कुटनी नाइन रहती थी। वह भले घर की बहू-बेटियों के भेद उसे देती, उन्हें बहकाती और पथभ्रष्ट करती थी। एक दिन वह नाइन ईहड़ सोलंकी के घर आई। उसने बहुत प्रेम और अधीनता प्रकट की तथा उबटना लगाकर ऊदा की स्त्री को आग्रहपूर्वक नहलाया। पीछे मेला से जाकर उसने कहा-ईहड़ की बेटी पद्मिनी है। आपके योग्य है। उसे काब में करो।

मेला ने जाकर सोलंकियों से कहा कि यदि तुम अपनी बहिन मुझे दे दो, तो मैं ऊदा से तुम्हारा बैर लूं।'

ऊदा के साले अपने भाई की मृत्यु का बैर लेना चाह ही रहे थे। वे राजी हो गए। पर जब ऊदा की स्त्री ने यह बात सुनी, तब उसने मेला को कहला भेजा मेरा पति और जेठ ऐसे नहीं हैं, जिनकी स्त्रियों पर तू नज़र जमाए। यदि कुछ पराक्रम तुझ में हो, तभी इधर पांव रखना। इसके बाद एक ब्राह्मण के हाथों अपने जेठ के पास भी सब हकीकत भेज दी। यह भी कहला दिया-मेला उधर आएगा-उसकी अच्छी खातिर करना।

'तो क्या मेला वहां गया?' एक साथ दो-तीन तरुणों ने पूछा। चारण ने कहा:

मेला अपने कच्छी घोड़े पर सवार होकर चला और बालसीसर तालाब पर जा उतरा। वहां बकरियों के चरानेवाले गड़रिए अपनी छागलें (छोटी मशकें) छोड़कर तीर-कमान पृथ्वी पर रखे गप्पें लड़ा रहे थे। मेला ने उनसे पूछा:

'रेबड़ (बकरियों का झंड) कहां का है?'

'ये बकरे उगमसी ठाकुर के हैं।'

'क्या इनमें से बकरे बिकते हैं?'

'नहीं, कोई पाहुना आए, तो उसके लिए मारे जाते हैं। बिकते नहीं हैं।'

'तो एक बकरा मुझे दे दो।

'तुम मेहमान हो तो ले लो।'

'पर, मैं बिना मोल नहीं लूंगा।'

इतना कहकर उसने ईकदिरा (दुअन्नियां) निकालकर उन्हें दे दिए। एक बड़ा बकरा छांटकर लिया। उसके काट-कूटकर उसने टुकड़े किए और मांस में बाजरा मिलाकर बजरिया बनाया। उसने सुना था-सिखरा के यहां दो ज़बर्दस्त कुत्ते हैं। कुछ मांस स्वयं खाया, कुछ गड़रियों