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ककड़ी की कीमत
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दिल्ली की ललनाएं नहीं दीख पड़तीं। न अब वे जड़ाऊ जेवर ही उनके बदन पर दीख पड़ते हैं जिनकी बदौलत दो हजार जड़िए और पांच हजार सुनार दिल्ली से अपनी रोज़ी चलाते थे। अब तो बारीक क्रेप की फैशनेविल साड़ियां, उनपर नफासत से कढ़ी हुई बेलें, बिना आस्तीन के जम्पर, जिनमें से आधी छाती और समूची मृणाल-भुजाएं खुला खेल खेलती हैं, साथ में ऊंची एड़ी के रंग-बिरंगे सैंडिल जूते, चांदनीचौक में देखते-देखते आंखें थक जाती हैं। देश की इन पर्दाफाश बहिनों में सुशिक्षिताएं तो बहुत ही कम हैं। ज्यादातर मोर का पंख खोंसकर मोर बननेवाले कौए जैसी हैं। इसका पता उनके चेहरे पर पुते हुए फूहड़ ढंग के पाउडर से, होंठों में खूब गहरे लगे गुलाबी रंग से, तीव्र सेंट से, तराबोर चटकीले रेशमी रूमाल से, बालों में चमचमाते नकली जड़ाऊ पिनों से अनायास ही लग जाता है। कभी-कभी तो इन अधकचरी मेमसाहिबा की कोमल कलाइयों में दिल्ली फैशन के सोने के दस्तबन्दों और अनगिनत चूड़ियों के बीच फैन्सी रिस्टवाच तथा पैरों के जेवरों पर ऊंची एड़ी का सैंडिल शू मन में अजव हास्यरस उत्पन्न करता है; खासकर उस हालत में जबकि उनके पालतू पति महाशय पतलून पर लापरवाही से स्वेटर पर कोट डाले उनके पीछे-पीछे उनकी खरीदी चीजों का बंडल लिए बड़े उल्लास से चलते-फिरते और मुसाहिबी करते नजर आते हैं।

३८ वर्ष हुए। उस समय दिल्ली के चांदनीचौक में, अब जहां अगल-बगल पैदल चलनेवालों के लिए पटरियां बनी हैं, वहां सड़कें थीं। सड़कें कंकड़ की थीं। उनमें बहली, मझोलियां, इक्के सरपट दौड़ा करते थे। दोनों समय उन सड़कों पर छिड़काव हुआ करता था। बीचोंबीच अब जहां चमचमाती सीमेंट की पुख्ता सड़क है, नहर पर पटरी बनी थी। उसके दोनों ओर खूब घने वृक्षों की छाया थी। ज्येष्ठ-बैसाख की दोपहरी में भी वहां शीतल वायू के झोंके आया करते थे। उस पटरी पर बड़ी-बड़ी भीमकाय बेतों की छतरियां लगाए खोंचेवाले अपनी-अपनी छोटी-छोटी दुकानें लिए बैठे रहते थे। उनमें बिसाती टोपीवाले, टुकड़ीवाले, घी के सौदेवाले, दहीबड़ेवाले, चने की चाटवाले, कचालूवाले, मेवाफरोश तथा फलवाले सभी होते थे। उनसे भी छोटे दुकानदार अपनी छोटी-सी दुकान को किसी टोकरी में सजाए गले में लटकाए घूम-फिरकर सौदा बेचा करते थे। सैकड़ों आदमी उन वृक्षों की घनी छाया में पड़े हुए थकान उतारा करते थे। घंटाघर के सामने