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बड़नककी

प्राचीन वेश्याओं का जीवन आधुनिक वेश्या-जीवन से सर्वथा भिन्न था। उस जीवन में वेश्याएं अपने ग्राहकों को आत्मिक, शारीरिक एवं पारिवारिक सुख की सभी चेष्टाओं में सक्रिय थीं। स्वार्थान्धता की दुष्ट प्रकृति से वे दूर यीं। उनकी सत्प्रवृत्तियां अपने प्रेमियों के लिए उन्मुख रहती थीं। बड़नककी एक ऐसा ही चरित्र है। यह कहानी १९२८ में लिखी गई थी। और इसके प्रकाशित होने पर लेखक के पास जिज्ञासु पत्रों का तांता लग गया था।

अजमेर तो बहुतों ने देखा होगा, उसके जैसी ऊबड़-खाबड़ गन्दी गलियां और सड़कें और किस शहर को नसीब हैं। वैसे मैले तोंदल, थलथल, हलवाई मिट्टी के रंग की धोती कमर में बांधे, लोहे के थालों में तेल और गुड़ की मिठाइयां, भुंजे सेव लिए किस तरह चुन्धी आंखों से ग्राहक के ऊपर शुभ दृष्टि डालते हैं, इसे बताकर कैसे कहा जाए। अजी वैसी कुंजड़नें धरती के छोर पर कहीं मिल जाएं, तो नाम। मदारगेट के शैतान की प्रांत की तरह ऊंची-नीची और रेखागणित की तमाम शक्लों की मुरक्काबञ्चली को पार करते ही फिर कुंजड़न ही कुंजड़न हैं। सभी नमूनों की देख लीजिए। नवेलियां महीन झिलमिल चूंघट से और प्रौढ़ाएं कटाक्ष की खुली दुधारी तलवार से एवं वृद्धाएं अधनंगे सिर, हाथ-भर लम्बी जुबान से जिस खुशी से सौदा पटाती हैं और उनके मर्दुए जिस सन्तोष से इस सौदे को नयन भरकर देखते हुए मीठी तमाखू का दम पर दम चुपचाप लगाया करते हैं, इसे जिसने न देखा, उसकी आंखें, चाहे जैसे बढ़िया चश्मे से ढकी रहें, व्यर्थ हैं। इन कुंजड़ों की उर्दू-मारवाड़ी मिश्रित तीखी मीठी बोली, ठठोली, कलेजे के आर-पार जानेवाले व्यंग्य-बाण झेलने की अपेक्षा लोग चार पैसे झाड़ देने में जो स्वाद पाते हैं, उसे अजमेर के भाग्यवान ही जान सकते हैं।

इतना होने पर भी आज अजमेर में कुछ तत्त्व नहीं है। सेठों के नये-नये बंगलों ने शून्य पहाड़ी टेकरियों को एक शोभा ज़रूर प्रदान की है। चीफ कमिश्नर साहेब