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बड़नककी
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का फरफराता झण्डा जब अभागे आना सागर के हिलोरें मारते जल में प्रतिबिम्बित होता है और स्वच्छ खालिस संगमरमर की बनी शाहजहां की विधवा बारादरी पर खड़े होकर जब दो-चार भद्रजन उसे निहारते हैं तो समझिए अजमेर में सब कुछ है। गलियां गन्दी हैं, तो हुआ करें। महल, मकानात, हवेलियां किस शान की बनी हैं। दुःख तो यही है कि उनमें रहनेवाला आज नहीं है। अजमेर में नर हैं, नारी हैं, बाज़ार हैं, गलियां हैं, मुहल्ले हैं, पर नहीं है प्राण। वह प्राण, जिसके लिए अजमेर से महामायावी अंग्रेजों ने विवाह किया था। अजमेर मुर्दा है, वह राजपूताना की एक महानगरी का श्मशान है।

पर सदा ही ऐसा न था। एक समय था जबकि अजमेर में ढड्डा परिवार प्रोज पर था। सारे राजपूताने में इसकी तूती बोल रही थी। सूरत की आढ़त के द्वारा योरोप तक उनकी हुंडी चलती थी। चांदी के बाज़ार में अमेरिका तक उनकी प्रामाणिकता थी। सेठ चांदमल छगनमल का नाम समस्त भारत के प्रमुख सेठों में था। सोनियों का आज-जैसा दौर-दौरा न था। अलबत्ता लढ़ा-परिवार तब भी ओज पर था। सोनियों और लढ़ाओं में लाग-डाट चलती रहती थी। गोटा और जवाहरात एवं हुंडी-पर्चे की अजमेर एक भारत-प्रसिद्ध मण्डी थी। उस समय आठ सौ दुकानें तो सिर्फ गोटे की थीं।

सन् '५७ के गदर के बाद अंग्रेज़ों ने अनुभव किया कि राजपूताना हमारी सबसे बड़ी ढाल है। साधारण प्रजा की अपेक्षा रईस और रजवाड़े अधिक आसानी से हमारी गुलामी पसन्द करेंगे; इसके सिवा इन्हें सर्वथा बधिया बनाए रखने ही में कल्याण है। इसलिए उन्होंने राजपूताने के लिए अपनी खास नीति निर्धारित की; खास-खास सभी ठिकानों ने अंग्रेजों से सन्धियां कर ली थीं। मारवाड़ ने नवीन सन्धि द्वारा अपने-आपको ब्रिटेन की कृपा पर छोड़ दिया था। निदान अजमेर में अंग्रेजी साम्राज्य का सौभाग्य-सिंदूर लालबिन्दु लगा दिया गया। अजमेरसा सम्पन्न नगर उस समय था नहीं। इसके सिंवा यदि वर्षा ठीक हो जाए तो कश्मीर को छोड़कर अजमेर की सुषमा को धारण करनेवाला नगर भारत में नहीं।

अजमेर कमिश्नरी बन गया। आज तक वह भारत के रजवाड़ों के प्रभु का स्थान है। छोटी-छोटी शक्तियां, जिनका सम्बन्ध राठौर से अधिक है, अजमेर के चारों तरफ छाई हुई हैं। इसके सिवा मेवाड़ का प्रतापी नाम उस समय तक सर्वथा