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बड़नककी
 


गुस्से से लाल मुंह किए चीफ कमिश्नर साहब ने बराण्डे में आकर गुर्रा कर कहा:

'वेल बेरा, क्या गुल है?'

'हुजूर, सेठ साहब.....'

'ओह, रायबहादुर...'आप इस वक्त कैसे?'

'हुजूर! बहुत ज़रूरत होने पर आया हूं।'

'क्या बात है?'

'भीतर चलिए तो कहूं।'

भीतर आकर सेठजी ने पगड़ी साहब के पैरों पर धर दी और सारा मामला सुनाकर कहा-कल भुगतान करना या मरना-एक काम मुझे करना होगा। सिर्फ तीन दिन के लिए दस लाख रुपया सरकारी खजाने से मिलना चाहिए।

साहब ने गम्भीर होकर कहा-मगर यह तो कानून नहीं है।

'साहब, मैं कानून नहीं जानता। सरकार के लिए हम जान देने के लिए तैयार हैं। क्या सरकार हमारी इतनी मदद भी न करेगी?'

साहब ने पुर्जा लिख दिया।

अंग्रेज़ी अमलदारी के प्रारम्भिक दिन थे। कानून आवश्यकतानुसार काम में आता था। रातोंरात सेठजी के घर में रुपया पहुंच गया। रातोंरात कोठे में भर दिया गया। रातोंरात दीवार चुन दी गई और सफेदी कर दी गई। दस बज गए थे। सेठजी गम्भीर मुद्रा में गद्दी पर बैठे थे। मुनीम-गुमाश्ते अपनेअपने धन्धे में लगे थे। सेठ 'अपना भारी शरीर गाड़ी से उतारकर मुस्कराते हुए भीतर चले पाए। सेठजी ने हंसकर आदरपूर्वक उन्हें बैठाया, कुशल पूछी और आने का कारण पूछा। सेठजी ने ज़रा हंसकर कहा-सेठ साहब, आप पर थोड़ी-सी हुंडियां हैं, इन्हें सकार दें। रुपये की इस वक्त ज़रूरत आ पड़ी है।

सेठज़ी से संकेत पाकर मुनीमजी ने हुंडियां लेने को हाथ बढ़ाया।

हुंडियां देखते ही मुनीमजी का मुंह पीला पड़ गया।

सेठजी ने कहा-क्या बात है मुनीमजी?

'रुपया नकद घर में है नहीं। हुंडियों की रकम बहुत है।' मुनीमजी ने धीरे से कहा।

क-२