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वेश्या
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किया। महाराज ने बालिका को दोनों हाथों में उठाकर कहा--गुलबदन! तुम कब? प्रोफ! कब-कब! कब?--उन्होंने उसके उसी उत्फुल्ल होंठ को चूम लिया और कसकर छाती से लगा लिया। बालिका मानो मूछित हो गई। वह शिथिलगात्र, निस्पन्द गति से उनके अंक से खिसकने लगी। महाराज ने उसे कौच पर लिटा दिया। बालिका धीरे से उठकर अपने वस्त्र संभालने लगी।

महाराज ने कहा-गुलबदन! तुम कितने दिनों में बड़ी हो जाओगी? गुलबदन महाराज का मतलब न समझकर नीची नज़र किए खड़ी रही। महाराज ने कहा-कैसी ठण्डी हवा चल रही है! तुम्हें अच्छा लगता है? बालिका ने स्वच्छ आंखें ऊपर को उठाकर कहा-जी हां। 'तुम्हें मालूम है, तुम्हारा नाम क्या रखा गया है?'

'जी हां!'

'क्या भला?'

'गुलाबबाई'-बालिका के मुख पर हास्य-रेखा दौड़ गई और एक बार बालिका का मुख चुम्बन करके महाराज ने उसे दूसरे कमरे में भेज दिया।

उन्मत्त यौवन धीरे-धीरे आया और एकदम आक्रान्त कर गया। पीले रंग पर लाली और चमक, गुलाबी प्रभा पर मानिक की चमक एक अभूतपूर्व रंग दिखा रही थी। किसीपर दृष्टि पड़ते ही कुछ क्षण निनिमेष देखना और फिर उत्फुल्ल होंठों का फड़कना, यह बाल्यकाल का स्वभाव इस गदराए हुए यौवन पर बिजली गिरा रहा था। महाराजाधिराज की आंखों में गुलाब, नस-नस में गुलाब, जीवन और मृत्यु में गुलाब थी। गुलाब को विलास और ठाट-बाट के जो सुख प्राप्त थे, वे पाश्चात्य जीवन के विलासी के लिए कल्पना की वस्तु नहीं। वह महाराज के नौ राजप्रासादों में से किसीको किसी समय अपनी इच्छानुसार, जिस प्रकार चाहे इस्तेमाल कर सकती थी। सैकड़ों दास-दासियां उसकी आज्ञा, वह चाहे जैसी हो, पालन करने और उसके सुख-रक्षार्थ उसकी सेवा में रहती थीं। जो कुछ वह चाहती थी, परिणाम और धन-व्यय का विचार बिना किए तत्काल प्रबन्ध किया जाता था। उसके चित्रमयी वस्त्र, विशेष करके रेशम और मखमल के अचिन्त्य रूप से अमूल्य और बढ़िया होते थे और वह काश्मीर तथा बनारस में विशेष रूप से तैयार किए जाते थे। उसका जेवर कई लाख रुपयों की कीमत का था। कुछ तो उसके लिए