पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/८१

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खूनी
 


चढ़ा लिया।

नायक ने मेरे हाथ से पुस्तक ले ली। क्षण-भर सन्नाटा रहा। नायक ने एकाएक उसका नाम लिया और क्षण-भर में छः नली रिवाल्वर मेज़ पर रख दिया।

वह छः अक्षरों का शब्द उस रिवाल्वर की छः गोलियों की तरह मस्तिष्क में घुस गया। पर मैं कम्पित न हुआ। प्रश्न करने और कारण पूछने का निषेध था। नियमपूर्वक मैंने रिवाल्वर उठाकर छाती पर रखा और उस स्थान से हटा। तत्क्षण मैंने यात्रा की। वह स्टेशन पर हाज़िर था। अपने पत्र और मेरे प्रेम पर इतना भरोसा उसे था। देखते ही लिपट गया। घर गए, चार दिन रहे। वह क्या कहता है, क्या करता है, मैं देख-सुन नहीं सकता। शरीर सुन्न हो गया था, आत्मा दृढ़ थी, हृदय धड़क रहा था; पर विचार स्थिर थे।

चौथे दिन प्रातःकाल जलपान करके हम स्टेशन की ओर चले। तांगा नहीं लिया, जंगल में घूमते जाने का विचार था। काव्यों की बढ़-बढ़कर आलोचना होती चलती थी। उस मस्ती में वह मेरे मन की उद्विग्नता भी न देख सका। धूप और खिली, पसीने और बह चले। मैंने कहा-चलो, कहीं छांह में बैठे।-धनी कुंज सामने थी। वहीं गए। बैठते ही जेव से दो अमरूद निकालकर उसने कहा-सिर्फ दो ही पके थे, घर के बगीचे के हैं। यहीं बैठकर खाने के लिए लाया था; एक तुम्हारा, एक मेरा।-मैंने चुपचाप अमरूद लिया और खाया। एकाएक मैं उठ खड़ हुआ। वह आधा अमरूद खा चुका था। उसका ध्यान उसीके स्वाद में था। मैंने धीरे से रिवाल्वर निकाला, घोड़ा चढ़ाया और कम्पित स्वरों में उसका नाम लेकर कहा-अमरूद फेंक दो और भगवान का नाम लो, मैं तुम्हें गोली मारता हूं।

उसे विश्वास न हुआ। उसने कहा-बहुत ठीक, पर इसे खा तो लेने दो। मेरे धैर्य छूट रह था। मैंने दबे कण्ठ से कहा-अच्छा खा लो।-खाकर वह खड़ा हो गया; सीधा तनकर। फिर उसने कहा-अब मारो गोली। मैंने कहा हंसी मत समझो, मैं तुम्हें गोली ही मारता हूँ, तुम भगवान का नाम लो।-उसने हंसी में ही भगवान का नाम लिया और फिर वह नकली गम्भीरता से खड़ा हो गया। मैंने एक हाथ से अपनी छाती दबाकर कहा-ईश्वर की सौगन्ध! हंसी मत समझो, में तुम्हें गोली मारता हूं।

मेरी आंखों में वही कच्चे दूध के समान स्वच्छ आंखें मिलाकर उसने कहा--