पृष्ठ:कहानी खत्म हो गई.djvu/८२

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खूनी
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मारो।

क्षण-भर भी विलम्ब करने से मैं कर्तव्यच्युत हो जाता। पल-पल में साहस डूब रहा था। दनादन दो शब्द गूंज उठे। वह कटे वृक्ष की तरह गिर पड़ा। दोनों गोली छाती को पार कर गईं।

मैं भागा नहीं। भय से इधर-उधर मैंने देखा भी नहीं, रोया भी नहीं। मैंने उसे गोद में उठाया। मुंह की धूल पोंछी। रक्त साफ किया। आंखों में इतनी ही देर में कुछ का कुछ हो गया था। देर तक उसे गोद में लिए बैठा रहा, जैसे माँ सोते बच्चे को जागने के भय से निश्चल लिए बैठी रहती है।

फिर मैं उठा। ईंधन चुना, चिता बनाई और जलाई-अन्त तक वहीं बैठा रहा।

बारहों प्रधान हाज़िर थे। उसी स्थान पर जाकर मैं खड़ा हुआ। नायक ने नीरव हाथ बढ़ाकर रिवाल्वर मांगा। रिवाल्वर दे दिया। कार्य सिद्धि का संकेत संपूर्ण हुआ। नायक ने खड़े होकर वैसे ही गम्भीर स्वर में कहा-तेरहवें प्रधान की कुर्सी हम तुम्हें देते हैं। मैंने कहा तेरहवें प्रधान की हैसियत से मैं पूछता हूं कि उसका अपराध मुझे बताया जाए।

नायक ने नम्रतापूर्वक जवाब दिया-वह हमारे हत्या-सम्बन्धी षड्यन्त्रों का विरोधी था। हमें उसपर सरकारी मुखबिर होने का सन्देह था।-मैं कुछ कहने योग्य न रहा। नायक ने वैसी ही गम्भीरता से कहा--नवीन प्रधान की हैसियत से तुम यथेष्ट एक पुरस्कार मांग सकते हो।

अब मैं रो उठा। मैंने कहा- मुझे मेरे वचन फेर दो। मुझे मेरी प्रतिज्ञाओं से मुक्त कर दो, मैं उसीके समुदाय का हूं! तुम लोगों में नंगी छाती पर तलवार के घाव खाने की मर्दानगी न हो तो तुम अपने को देशभक्त कहने से इन्कार कर दो। तुम्हारी इन कायर हत्याओं को मैं घृणा करता हूं। मैं हत्यारों का साथी, सलाही और मित्र नहीं रह सकता! तुम तेरहवीं कुर्सी को जला दो।

नायक को क्रोध न आया। बारहों प्रधान पत्थर की मूर्ति की तरह बैठे रहे। नायक ने उसी गम्भीर स्वर में कहा-तुम्हारे इन शब्दों की सज़ा मौत है। पर नियमानुसार तुम्हें क्षमा पुरस्कार में दी जाती है।

मैं उठकर चला आया। देशभर घूमा, कहीं ठहरा नहीं। भूख, प्यास, विश्राम