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भाई की विदाई

यह कहानी आचार्यजी ने १९३३ई० में लिखी थी। क्रान्तिकारी दस्यु-जीवन पर आधारित इस कहानी में कर्तव्यनिष्ठा और पवित्र प्रेम का सुन्दर निर्वाह हुआ है। पढ़ते-पढ़ते व्यक्ति भावना-विभोर हो उठता है।

दारोगाजी नये-डाल के टूटे थाने में आए थे। अधिकार की पुरानी बू दिमाग में थी, अफसरी की धौंस भी थी, ईश्वर की दया से मोटे-ताजे, गोरे-चिट्टे खासे गबरू जवान थे। डींग-हांकना उनकी आदत थी। ठाकुर बताते थे, पता नहीं कुर्मी थे कि काछी। थाने में आते ही उन्होंने सिपाहियों पर रौब गांठना शुरू कर दिया, सिपाही भी एक से एक बढ़कर चण्ट, सैकड़ों थानेदारों की आंखें देखे हुए; भला इन्हें क्या गिनते? जो नये थे, जी हुजूर कहकर बुरी-भली सब पी जाते थे। जो पुराने थे वे मुंह पर तो कुछ न कहते; पर पीठ पीछे 'कल का लौंडा' कहा करते। सिपाही और जमादार, हेड और मुहरिर सब पुरानी खराद के आदमियों ने मिलकर मिस्कट कर रखी थी कि किसी मौके पर बच्चूजी को वह चरका दिया जाए कि जिसका नाम। दारोगाजी डाकुओं को पकड़ने के लिए बड़े उत्सुक दीख पड़ते थे। अभी तक अच्छी मुहिम से उनका वास्ता न पड़ा था। उन्हें अपनी निशानेबाज़ी पर नाज़ था। कहा करते थे कि उड़ती चिड़िया को पट से गिरा दूं। सिपाही उन्हें खूब बनाते। तारीफ के पुल बांध देते। थानेदार फूलकर कुप्पा हो जाते। वे अकसर डाकूओं को पकड़ने में फेल होनेवाले थानेदारों को जुलाहा कहा करते थे। उनका कहना था कि वह थानेदार ही क्या जो डाकुओं को गिरफ्तार न करे।

क्रांतिकारी डाकों का ज़ोर था, इन लोगों के आतंक से कसबों और गांवों में घबराहट फैली हुई थी। आए दिन एक न एक वारदात नज़र पड़ जाती थी। दो-एक पुलिसवाले गोली से उड़ा दिए गए थे। इसलिए वे ऐसे मौके पर भिड़ जाने से कतराते थे। पर कार सरकार बड़ा बेढब है-अछताते-पछताते जाना ही पड़ता। परन्तु प्रायः सदैव उन्हें निराश लौटना पड़ता था। ये पढ़े-लिखे जवांमर्द नवयुवक