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भाई की विदाई
 

'और हम योंही गाबदू हैं, मियां, क्या बुज़दिलों की जैसी बातें करते कान्स्टेबिली करते उम्र गुज़ार दी। मालूम होता है बुढ़ापे में तुम्हारी अक्ल को मोर्चा लग गया है?'

इसके बाद उन्होंने कमालुद्दीन की तरफ से मुंह फेरकर दूसरे एक जवान कान्स्टे-बिल से कहा--तुम कहो रामदीन, क्या कहते हो?

'हम सरकार के साथ सिर कटाने को तैयार हैं। जौन आप हुक्म दें वहै करें, सरकार का नमक खात हैं।'

'शाबाश ! तुम्हें साथ रहना होगा। और किसे तुम पसन्द करते हो?'

'सरकार, गुलाम अहमद और गोपाल पांडे भी अच्छे बांके जवान हैं। इन्हें भी ले लेना चाहिए।'

कमालुद्दीन ने बीच ही में रोककर कहा- हुजूर, अब बीच में बोलना ही पड़ा, हुजूर ही की तरह ये लोग भी नये रंगरूट हैं। अभी कवायदें की हैं-मुहिम नहीं देखी, सिर्फ पेशाब करनेवालों के दफा ३४ में चालान किए हैं। ये वहां से मुंह की खाकर आवेंगे।

दारोगाजी ने क्रुद्ध होकर कहा-कमालुद्दीन, तुम बहुत मुंहजोर हो गए हो! मुझे साहब के पास तुम्हारी रिपोर्ट करनी होगी। तुम्हारी राय में तुम्हारे सिवा और किसीके सिर में दिमाग ही नहीं है।

शह पाकर रामदीन बोला- हुजूर, कमालुद्दीन तो दारोगा होने लायक है। बेचारे को कान्स्टेबिल बना रखा है। हुजूर, सिफारिश कर दें तो अच्छा।

कमालुद्दीन वहां से खसक गया। और दारोगाजी ने अपनी पसन्द के आठ मज़बूत सिपाही चुनकर उन्हें चाक-चौबन्द रहने, गोली, बारूद, बन्दूक, किरच ठीक रखने का हुक्म दे दिया। गांव कोई पांच-छः कोस पर था। पार्टी ने तीसरे पहर ही कूच कर दिया। रास्ते-भर दारोगाजी अपने दिली हौसले बयान करते जा रहे थे। भांति-भांति की तजवीजें सोची जा रही थीं। इरादा पक्का यह था कि एक भी डाकू बचने न पाए, सब गिरफ्तार कर लिए जाएं । सब अपनी-अपनी कह रहे थे। सिर्फ कमालुद्दीन चुप था। वह चुपचाप कुछ सोचता हुआ चल रहा था। गांव के कुछ फासले पर एक नाला था। उसपर एक पुराना पुल था। नाला सूखा था। यह सदर सड़क से ज़रा हटकर था। इसके पास ही तीन-चार बड़े-बड़े पेड़ थे। वहां पहुंचते ही कमालुद्दीन रुक गया। उसने चारों तरफ देखा और कहा--