पृष्ठ:काजर की कोठरी.djvu/७१

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काजर की कोठरी 71 के बारे मे किसी तरह का कुछ भी हाल न मालूम हुआ। सध्या का समय है और लालसिंह के कमरे के आगे वाले दालान मे पारसनाथ एक कुर्सी पर बैठा हुआ कुछ सोच रहा है। उसके दिल मे तरह- तरह की बातें पैदा होती और मिटती हैं और एक तौर पर वह गम्भीर चिन्ता मे डूबा हुआ मालूम पडता है। इसी समय अकस्मात एक परदेसी आदमी ने उसके सामने पहुच कर सलाम किया और हाथ में एक चिट्ठी देकर किनारे खडा हो गया। हाथ-पैर और सूरत-शक्ल देखने से मालूम होता था कि वह आदमी कही बहुत दूर से सफर करता हुआ आ रहा है। पारसनाथ ने लिफाफे पर निगाह दौडाई जो उसी के नाम का लिखा हुआ था। अपने चचा के हाथ के अक्षर पहिचान कर वह चौक पडा और व्याकुलता के साथ चिट्ठी खोलकर पढने लगा। उसमे गहलिखा हुआ था- "चिरञ्जीव पारसनाय योग्य लिखीलालसिंह की आसीस । ' अपनी राजी-खुशी का हाल लिखना तो अब व्यथ ही है,हा ईश्वर से तुम्हारा कुशल-क्षेम मनाते हैं। बेशक तुम लोग ताज्जुब और तरददुद मैं पडे होवोगे और मेरे यकायक गायब हो जाने से तुम लोगो को रञ्ज हुआ होगा मगर मैं क्या करू। अपनी दिली उलझनो से लाचार होकर मुझे ऐसा करना पडा । सरला के गायब होने और हरनदन की ऐयाशी ने मेरे दिल पर गहरी चोट पहुचाई। अब मैं गृहस्थ आश्रम मे रहना और किसी को अपना मुह दिखाना पस द नहीं करता, इसलिए बिना किमीसे कुछ कहे- मुने चुपचाप यहा चला आया और आज इस आदमी के मामने ही सिर मुडाकर सल्यास ले लिया है । अब मुझे न तो गृहस्थी से कुछ सरकार रहा और न अपनी मिलकियत से कुछ वास्ता। जो कुछ वसीयतनामा मैं लिख चुका हू, आशा है कि तुम ईमानदारी के साथ उसी के मुताबिक कारवाई करोगे तथा मेरे रिश्तेदारो को धीरज व दिलासा देकर रोने-कलपने वाज रक्खोगे । आज मैं इस स्थान पो छोड अपने गुरुजी के साथ बदरिका- श्रम की तरफ जाता हू और उधर ही किसी जगल मे तपस्या करके शरीर त्याग दूगा । अब हमारे लौटने को रत्ती भर भी आशा न ग्सना और जिस नरह मुनासिव समझना पर का इन्तजाम करना। लानसिंह।" चिट्ठी पढ कर पारसनाथ तबीयत मे तो बहुत खुश हुआ मगर जाहिर