पृष्ठ:कामना.djvu/४१

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कामना
 

मै क्या-क्या कह गया। ये सब अभूतपूर्व बातें कहाँ से हमारे हृदय मे उठ रही हैं। परंतु,नहीं-यह तो प्रत्यक्ष है, दिखलाई पड़ रहा है कि ज्वाला और उसके पहले विप से मिला हुआ धुओं फैलने लगा है। जलाने वाली, दिग्दाह कराने वाली,अमृत होकर सुखभोग करने की इच्छा, इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाने की कल्पना, इसे अवश्य नरक बनाकर छोड़ेगी। है ! नरक और स्वर्ग । कहाँ है ? ये क्यो मेरे हृदय में घुसे पड़ते हैं ? काल्पनिक अत्यंत उत्तमता, सुख-भोग की अनंत कामना, म्वर्गीय इंद्र-धनुष बनकर सामने आ गई है, जिसने वास्तविक नीवन के लिए इस पृथ्वी की दबी हुई ज्वालामुखियों का मुख खोल दिया है। हमारे फूलो के द्वीप के बच्चो। रोओगे इन कोमल फूलों के लिए, इन शीतल झरनो के लिए। पिता के दुलारे पुत्रो ! तुम अपराधी के समान बेंत-से कॉपोगे। तुम गोद में नहीं जाने पाओगे । हा । मैं क्या करूँ-कहाँ जाऊँ ?

(बड़बड़ाता हुभा जाता है)

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