पृष्ठ:कामायनी.djvu/६८

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अपनी ज्वाला से कर प्रकाश
जब छोड़ चला आया सुन्दर प्रारंभिक जीवन का निवास
वन, गुहा, कुंज, मरु-अंचल में हूँ खोज रहा अपना विकास
पागल मैं, किस पर सदय रहा—-क्या मैंने ममता ली न तोड़
किस पर उदारता से रीझा--किससे न लगा दी कड़ी होड़ ?
इस विजन प्रांत में बिलख रही मेरी पुकार उत्तर न मिला
लू-सा झुलसाता दौड़ रहा-कब मुझसे कोई फूल खिला ?
मैं स्वप्न देखता हूँ उजड़ा--कल्पनालोक में कर निवास
देखा कब मैंने कुसुम हास !

इस दुःखमय जीवन का प्रकाश
नभ-नील लता की डालों में उलझा अपने सुख से हताश !
कलियाँ जिनको मैं समझ रहा वे काँटे बिखरे आस-पास
कितना बीहड़-पथ चला और पड़ रहा कहीं थक कर नितांत
उन्मुक्त शिखर हँसते मुझ पर --रोता मैं निर्वासित अशांत
इस नियति-नटी के अति भीषण अभिनय की छाया नाँच रही
खोखली शून्यता में प्रतिपद-असफलता अधिक कुलाँच रही
पावस-रजनी में जुगुनू गण को दौड़ पकड़ता मैं निराश
उन ज्योति कणों का कर विनाश !

जीवन-निशीथ के अंधकार !
तू, नील तुहिन-जल-निधि बन कर फैला है कितना वार-पार
कितनी चेतनता की किरणें हैं डूब रहीं ये निर्विकार
कितना मादक तम, निखिल भुवन भर रहा भूमिका में अभंग !
तू, मूर्त्तिमान हो छिप जाता प्रतिपल के परिवर्त्तन अनंग
ममता की क्षीण अरुण रेखा खिलती है तुझमें ज्योति-कला
जैसे सुहागिनी की ऊर्मिल अलकों में कुंकुमचूर्ण भला
रे चिरनिवास विश्राम प्राण के मोह-जलद-छाया उदार
मायारानी के केशभार!

56 / कामायनी