पृष्ठ:कामायनी.djvu/८४

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बढे़ ज्ञान-व्यवसाय, परिश्रम, बल की विस्मृत छाया में,
नर-प्रयत्न से ऊपर आवे जो कुछ वसुधा तल में है ।

सृष्टि-बीज अंकुरित, प्रफुल्लित, सफल हो रहा हरा भरा ,
प्रलय बीच भी रक्षित मनु से वह फैला उत्साह भरा ,
आज स्वचेतन-प्राणी अपनी कुशल कल्पनाएँ करके ,
स्वावलंब की दृढ़ धरणी पर खड़ा, नहीं अब रहा डरा।

श्रद्धा उस आश्चर्य-लोक में मलय-बालिका-सी चलती,
सिंहद्वार के भीतर पहुँची, खड़े प्रहरियों को छलती,
ऊँचे स्तंभों पर वलभी-युत बने रम्य प्रासाद वहाँ ,
धूप-धूप-सुरभित-गृह जिनमें थी आलोक-शिखा जलती ।

स्वर्ण-कलश-शोभित भवनों से लगे हुए उद्यान बने ,
ऋजु-प्रशस्त, पथ बीच-बीच में, कहीं लता के कुंज घने ,
जिनमें दंपत्ति समुद विहरते, प्यार भरे दे गलबाहीं ,
गूंज रहे थे मधुप रसीले, मदिरा-मोद पराग सने ।

देवदारू के वे प्रलंब भुज,जिनमें उलझी वायु-तरंग ,
मुखरित आभूषण से कलरव करते सुन्दर बाल-विहंग ,
आश्रय देता वेणु-वनों से निकली स्वर-लहरी-ध्वनि को ,
नाग-केसरों की क्यारी में अन्य सुमन भी थे बहुरंग !

नव मंडप में सिंहासन सम्मुख कितने ही मंच तहाँ ,
एक ओर रखे हैं सुन्दर मढ़ें चर्म से सुखद जहाँ ,
आती है शैलेय-अगुरु की धूम-गंध आमोद-भरी ,
श्रद्धा सोच रही सपने में 'यह लो मैं आ गयी कहाँ' !

और सामने देखा उसने निज दृढ़ कर में चषक लिये ,
मनु, वह क्रतुमय पुरुष ! वही मुख संध्या की लालिमा पिवे ,

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