पृष्ठ:कामायनी.djvu/९२

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वह अनंत चेतन नचता है उन्मद गति से ,
तुम भी नाचो अपनी द्वयता में-विस्मृति में ।

क्षितिज पटी को उठा बढ़ो ब्रह्मांड विवर में ,
गुंजारित घन नाद सुनो इस विश्व कुहर में ।
ताल-ताल पर चलो नहीं लय छूटे जिसमें ,
तुम न विवादी स्वर छेड़ी अनजाने इसमें ।

"अच्छा . यह तो फिर न तुम्हें समझाना है अब ,
तुम कितनी प्रेरणामयी हो जान चुका सब ।
किंतु आज ही अभी लौट कर फिर हो आयी ,
कैसे यह साहस की मन में बात समायी !

आह प्रजापति होने का अधिकार यही क्या ?
अभिलाषा मेरी अपूर्ण ही सदा रहे क्या ?
मैं सबको वितरित करता ही सतत रहूँ क्या ?
कुछ पाने का यह प्रयास है पाप सहूँ क्या ?

तुमने भी प्रतिदान दिया कुछ कह सकती हो ?
मुझे ज्ञान देकर ही जीवित रह सकती हो ?
जो मैं हूँ चाहता वही जब मिला नहीं है ,
तब लौटा लो व्यर्थ बात जो अभी कही है ।"

"इड़े ! मुझे वह वस्तु चाहिए जो मैं चाहूँ ,
तुम पर हो अधिकार, प्रजापति न तो वृथा हूँ ।
तुम्हें देख कर बंधन ही अब टूट रहा सब ,
शासन या अधिकार चाहता हूँ न तनिक अब।

80 / कामायनी