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[कायाकल्प
 

ठाकुर—संसार में जितना अत्याचार होता है, वह भी तो धनियों ही के हाथों होता है।

मनोरमा—हाँ मानती हूँ, धन से भी अत्याचार होता है, लेकिन काँटे से फूल का आदर कम नहीं होता। संसार में धन सर्वप्रधान वस्तु है। जिन्दगी का कौन-सा काम है, जो धन के बिना चल सके। धर्म भी बिना धन के नहीं हो सकता। यही कारण है कि संसार ने धन को जीवन का लक्ष्य मान लिया है। धन का निरादर करके हमने प्रभुत्व खो दिया और यदि हमें संसार में रहना है, तो हमें धन की उपासना करनी पड़ेगी। इसी से लोक-परलोक में हमारा उद्धार होगा।

मुंशीजी ने विजय-गर्व से हँसकर कहा—कहिए, दीवान साहब, मेरी डिग्री हुई कि अब भी नहीं?

ठाकुर—मुझे मालूम होता है, धन के माहात्म्य पर इसने कोई लेख लिखा था और वही पढ़ सुनाया। क्यों मनोरमा, है न यही बात?

मनोरमा—अभी तो मैंने यह लेख नहीं लिखा, लेकिन लिखूँगी तो उसमें यही विचार प्रकट करूँगी। मेरे शब्दों में कदाचित् आपको दुराग्रह का भाव झलकता हुया मालूम होता हो। इसका कारण यह कि मैं अभी एक अँग्रेजी किताब पढ़े चली आती हूँ, जिसमें सन्तोष ही का गुणानुवाद किया गया है।

मुंशीजी ने देखा मनोरमा के मन की थाह लेने का अच्छा अवसर है। ठाकुर साहब की ओर आँखें मारकर बोले—मनोरमा, मेरे विचार तुम्हारे विचारों से बिलकुल मिलते हैं। धन से जितना अधर्म होता है, अगर ज्यादा नहीं, तो उतना ही धर्म भी होता है; लेकिन कभी-कभी ऐसे भी मौके आ जाते हैं, जब धन के मुकाबले में और कितनी ही बातों का लिहाज करना पड़ता है। कन्या का विवाह ऐसा ही मौका है। मेरी कन्या का विवाह होनेवाला है। मेरे सामने इस वक्त दो वर हैं। एक तो अधेड़ आदमी है, पर दौलत उसके घर में गुलामी करती है। दूसरा एक सुन्दर युवक है, बहुत ही होनहार, लेकिन गरीब। बताओ, किससे कन्या का विवाह करूँ?

ठाकुर—अगर कन्या की बात है, तो मैं यही सलाह दूँगा कि आप दौलत पर न जाइए। उसी युवक से विवाह कीजिए।

लौंगी—ऐसा तो होना ही चाहिए। ब्याह जोड़े का अच्छा होता। ऐसा ब्याह किस काम का कि वह बहू का बाप मालूम हो, बेचारी कन्या के दिन रोते ही बीते।

मुंशी—और तुम्हारी क्या राय है, मनोरमा?

मनोरमा ने कुछ लजाते हुए कहा—आप जैसा उचित समझे, करें।

मुंशी—नहीं, इस विषय में तुम्हारी राय बुड्ढों की राय से बढ़कर है।

मनोरमा—मैं तो समझती हूँ कि जो दिन खाने पहनने, सैर-तमाशे के होते हैं, अगर वे किसी गरीब आदमी के साथ चक्की चलाने और चौका बरतन करने में कट गये, तो जीवन का सुख ही क्या? हाँ, इतना में अवश्य कहूँगी कि उम्र का एक साल एक लाख से कम मूल्य नहीं रखता।