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[कायाकल्प
 


मुंशी—हुजूर, सब कुछ साफ साफ कह डाला, उम्र का फर्क कोई चीज नहीं, आपस में मुहब्बत होनी चाहिए। मुहब्बत के साथ दौलत भी हो, तो क्या पूछना। हाँ, दौलत इतनी होनी चाहिए, जो किसी तरह कम न हो। और कितनी ही बातें इसी किस्म की हुईं। बराबर मुसकराती रहीं।

राजा—तो मनोरमा को पसन्द है?

मुंशी—उन्हीं की बातें सुनकर तो लौंगी भी चकरायी।

राजा—तो मैं आज ही बातचीत शुरू कर दूँ? कायदा तो यही है कि उधर से 'श्री गणेश' होता, लेकिन राजाओं में अक्सर पुरुष की ओर से भी छेड़छाड़ होती है। पश्चिम में तो सनातन से यही प्रथा चली आयी है। मैं आज ठाकुर साहब की दावत करूँगा और मनोरमा को भी बुलाऊँगा। आप भी जरा तकलीफ कीजिएगा।

राजा साहब ने बाकी दिन दावत का सामान करने में काटा। हजामत बनवायी। एक भी पका बाल न रहने दिया। उबटन मलवाया। अपनी अच्छी से अच्छी अचकन निकाली, केसरिये रंग का रेशमी साफा बाँधा, गले में मोतियों की माला डाली, आँखो में सुरमा लगाया, माथे में केशर का तिलक लगाया, कमर में रेशमी कमरबन्द लपेटी, कन्धे पर शाह रुमाल रखा, मखमली गिलाफ में रखी हुई तलवार कमर से लटकायी और यों सज-सजाकर जब वह खड़े हुए, तो खासे छैला मालूम होते थे। ऐसा बाँका जवान शहर में किसी ने कम देखा होगा। उनके सौम्य स्वरूप और सुगठित शरीर पर यह वस्त्र और आभूषण खूब खिल रहे थे।

निमन्त्रण तो जा हो चुका था। रात के ९ बजते बजते दीवान साहब और मनोरमा आ गये। राजा साहब उनका स्वागत करने दौड़े। मनोरमा ने उनकी ओर देखा तो मुसकरायी, मानो कह रही थी—ओ हो। आज तो कुछ और ही ठाठ हैं। उसने आज और ही वेष रचा था। उसकी देह पर एक भी आभूषण न था। केवल एक सुफेद साड़ी पहने हुए थी। उसका रूप माधुर्य कभी इतना प्रस्फुटित न हुआ था। अलंकार भावों के अभाव का आवरण है। सुन्दरता को अलकारों की जरूरत नहीं। कोमलता अलकारों का भार नहीं सह सकती।

दीवान साहब इस समय बहुत चिन्तित मालूम होते थे। उनकी रक्षा करने के लिए यहाँ लौंगी न थी और बहुत जल्द उनके सामने एक भीषण समस्या आनेवालो थी। दावत की मंशा वह खूब समझ रहे थे। कुछ समझ ही में न आता था, क्या कहूँगा? लौंगी ने चलते-चलते उनसे समझा के कह दिया था—'हाँ' न करना। साफ-साफ कह देना, यह बात नहीं हो सकती, मगर ठाकुर साहब उन वीरों में थे, जिनकी पीठ पर पाली में भी हाथ फेरने की जरूरत रहती है। बेचारे बिल-सा ढूँढ़ रहे थे कि कहाँ भाग जाऊँ। सहसा मुन्शी वज्रधर आ गये। दीवान साहब को आँखें-सी मिल गयीं। दौड़े और उन्हें लेकर एक अलग कमरे में सलाह करने लगे। मनोरमा पहले ही झूले घर में आकर इधर-उधर टहल रही थी। अब न वह हरियाली थी, न वह रोनक, न वह सफाई। सन्नाटा