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[कायाकल्प
 

अपराध उनके सिर से कैसे दूर होगा ?

मनोरमा––आपके कहने का यह मतलब है कि वह गालियाँ खाकर चुप रह जाते? क्यों?

गुरुसेवक––जब उन्हें मालूम था कि मेरे बिगड़ने से उपद्रव की सम्भावना है, तो मेरे खयाल में उन्हें चुप ही रह जाना चाहिए था।

मनोरमा––और मैं कहती हूँ कि उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आत्मसम्मान की रक्षा हमारा सबसे पहला धर्म है। आत्मा की हत्या करके अगर स्वर्ग भी मिले, तो वह नरक है। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफारिश करनी चाहिए कि एक महान् संकट मे, अपने प्राणों को हथेली पर लेकर, जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उनकी मीआद घटा दी जाय सरकार अपील करे, इससे आपको कोई प्रयोजन नहीं। आपका कर्तव्य वही है, जो मैं कह रही हूँ।

गुरुसेवक ने अपनी नीचता को मुसकराहट से छिपाकर कहा––आग में कूद पड़ूँ?

मनोरमा––धर्म की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ना कोई नयी बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न, कि आपसे आपके अफसर नाराज हो जायँगे। आप शायद डरते हों कि कहीं आप अलग न कर दिये जाय। इसकी जरा भी चिन्ता न कीजिए। मैं आशा करती हूँ मुझे विश्वास है कि आपका नुकसान न होने पायेगा।

गुरुसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले––नौकरी की मुझे परवा नहीं है, मनोरमा! मैं इन लोगों के कमीनेपन से डरता हूँ। इनको फौरन खयाल होगा कि मैं भी उसी टुकड़ी में मिला हुआ हूँ, और आश्चर्य नहीं कि मैं भी किसी जुर्म में फाँस दिया जाऊँ। मुझे इनके साथ मिलने-जुलने से इनकी नीचता का कई बार अनुभव हो चुका है। इनमें उदारता और सज्जनता नाम को भी नहीं होती। बस, अपने मतलब के यार हैं। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है, और वह शब्द है-'स्वार्थ'। मैं सब कुछ सह सकता हूँ, जेल के कष्ट नहीं सह सकता। जानता हूँ, यह मेरी कमजोरी है, पर क्या करूँ? मुझमें तो इतना साहस नहीं।

मनोरमा––भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएँ निर्मल हैं। मैं आपका जरा भी नुकसान न होने दूंगी। गवाहों के बयान हो गये कि नहीं? गुरुसेवक हाँ, हो गये। अब तो केवल फैसला सुनाना है।

मनोरमा––तो लिखिए, लाऊँ कलम-दावात?

गुरुसेवक––लिख लूँगा, जल्दी क्या है?

मनोरमा––मैं बिना लिखवाये यहाँ से जाऊँगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आयी हूँ।