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[कायाकल्प
 

अगर पहले से मालूम होता कि रानीजी का शुभागमन होगा, तो कुछ तैयारी कर रखते, कम-से कम घर की सफाई तो करवा देते, दो चार लालटेने माँग-जॉचकर जला रखते, पर अब क्या हो सकता था।

मनोरमा ने उनके जवाब का इन्तजार न किया। तुरन्त मोटर से उतर पड़ी और दीवानखाने में आकर खड़ी हो गयी। मुंशीजी बदहवास अन्दर गये और निर्मला से बोले––बाहर निकल आओ, हाथ-वाथ धो डालो। रानीजी पा रही है। यह दुर्दशा देखेंगी, तो क्या कहेंगी। तब तक आटा लेकर क्या बैठ गयीं। कोई काम वक्त से नहीं करतीं। बुढ़िया हो गयीं; मगर अभी तमीज़ न आयी।

निर्मला चटपट बाहर निकली। मुंशीजी उसके हाथ धुलाने लगे। मंगला चारपाई बिछाने लगी। मनोरमा बरोठे में आकर रुक गयी। इतना अँधेरा था कि वह आगे कदम न रख सकी। मरदाने कमरे में एक दीवारगीर जल रही थी। झिनकू उतावली में उसे उतारने लगे, तो वह जमीन पर गिर पड़ी। यहाँ भी अँधेरा हो गया। मुंशीजी हाथ में कुप्पी लेकर द्वार की ओर चले, तो चारपाई की ठोकर लगो। कुप्पी हाथ से छूट पड़ी; आशा का दीपक भी बुझ गया। खड़े खड़े तकदीर को कोसने लगे––रोज लालटेन आती है और रोज तोड़कर फेंक दी जाती है। कुछ नहीं तो दस लालटेने ला चुका हूँगा, पर एक का भी पता नहीं मालूम होता है। किसी कुली का घर है, उसके भाग्य की भाँति अँधेरा। 'राक्षस के घर व्याही जोय, भून-भान कलेवा होय।' किसी चीन की हिफाजत करनी तो आती ही नहीं।

मुंशीजी तो अपनी मुसीबत का रोना रो रहे थे, झिनकू दौड़कर अपने घर से लालटेन लाया, और मनोरमा घर में दाखिल हुई। निर्मला आँखों में प्रेम की नदी भरे, सिर झुकाये खड़ी थी। जी चाहता था, इसके पैरों के नीचे आँखे बिछा दूं। मेरे धन्य भाग!

एकाएक मनोरमा ने मुककर निर्मला के पैरों पर शीश झुका दिया और पुलकित कण्ठ से बोली––माताजी धन्य भाग्य कि आपके दर्शन हुए। जीवन सफल हो गया।

निर्मला सारा शिष्टाचार भूल गयी, बस, खड़ी रोती रही। मनोरमा के शील और विनय ने शिष्टाचार को तृण की भाँति मातृ-स्नेह की तरंग में बहा दिया।

इतने में मंगला पाकर खड़ी हो गयी। मनोरमा ने उसे गले से लगा लिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली––पान तुम्हें अपने साथ ले चलूँगी, दो चार दिन तुम्हें मेरे साथ रहना पड़ेगा। हम दोनों साथ-साथ खेलेंगी। अकेले पड़े-पड़े मेरा जी घबराता है। तुमसे मिलने की मेरी बड़ी इच्छा थी।

निर्मला––मनोरमा, तुमने हमें धरती से उठाकर आकाश पर पहुंचा दिया। तुम्हारे शील स्वभाव का कहाँ तक बखान करूँ।

मनोरमा––माता के मुख से ये शब्द सुनकर मेरा हृदय गर्व से फूला नहीं समाता। मैं बचपन ही से मातृ-स्नेह से वंचित हो गयी, पर आज मुझे ऐसा ज्ञात हो रहा है कि