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[ कायाकल्प
 

घर की दशा देखकर अवश्य ही उसका दिल फिर जायगा। एक तो जरा-सा घर, कहीं बैठने की जगह नही, उसपर न कोई साज, न सामान । विवाह हो जाने के बाद दूसरी बात हो जाती है। लड़की कितने ही बड़े घराने की हो, समझ लेती है, अब तो यही मेरा घर है-अच्छा हो या बुरा। दो चार दिन अपनी तक्दीर को रोकर शान्त हो जाती है । बोले-जी हाँ, यह मुनासिब नहीं मालूम होता । मैं ही चला चलूँगा।

घर में विद्या का प्रचार होने से प्रायः सभी प्राणी कुछ न कुछ उदार हो जाते है। निर्मला तो खुशी से राजी हो गयी। हाँ, मुन्शी वज्रघर को कुछ सकोच हुअा, लेकिन यह समझकर कि यह महाशय लड़के पर लट्टू हो रहे हैं, कोई अच्छी रकम दे मरेगे, उन्होंने भी कोई आपत्ति न की। अब केवल ठाकुर हरिसेवकसिह को सूचना देनी थी। चक्रधर यों तीसरे पहर पढाने जाया करते थे, पर श्रान ६ बजते-बजते ना पहुंचे।

ठाकुर साहब इस वक्त अपनी प्राणेश्वरी लौंगी से कुछ बातें कर रहे थे। मनोरमा की माता का देहान्त हो चुका था। लौंगी उस वक्त लौडी थी। उसने इतनी कुशलता से घर सँभाला कि ठाकुर साब उसपर रीझ गये और उसे गृहिणी के रिक्त स्थान पर अभिषिक्त कर दिया । नाम और गुण मे इतना प्रत्यक्ष विरोध बहुत कम होगा। लोग कहते हैं, पहले वह इतनी दुबली थी कि फूक टो तो उड़ जाय, पर गृहिणी.का पद पाते ही उसकी प्रतिमा स्थूल रूप धारण करने लगी।

क्षीण जलधारा बरसात की नदी की भाँति बढ़ने लगी और इस समय तो स्थूल प्रतिमा की विशाल मूति थी, अचल और अपार । बरसाती नदी का जल गढ़हो और.गढ़हियों में भर गया था। बस, जल ही जल दिखायी देता था। न आँखों का पता या, न नाक का, न मुँह का, सभी जगह स्थूलता व्याप्त हो रही थी, पर बाहर की.स्थूलता ने अन्दर की कोमलता को अक्षुण्ण रखा था। सरल, सदय, हँसमुख, सहन-शोल स्त्री थी, निसने सारे घर को वशीभूत कर लिया था। यह उसी की सजनता यो,.जो नौकरों को वेतन न मिलने पर भी जाने न देती थी। मनोरमा पर तो वह प्राण देती थी। ईर्ष्या, क्रोध, मत्सर उसे छू भी न गया था । वह उदार न हो, पर कृपण न यी । ठाकुर साहब कभी कभी उसपर भी बिगड़ जाते थे, मारने दौड़ते थे, दो-एक वार.मारा भी था, पर उसके माथे पर जरा भी बल न आता था । ठाकुर साहब का सिर भी दुखे, तो उसकी जान निकल जाती थी। वह उसकी स्नेहमयी सेवा ही थी, जिसने ऐसे हिंसक जीव को जकड़ रखा था।

इस वक्त दोनों प्राणियों में कोई बहस छिड़ी हुई थी। ठाकुर साहव झला भल्ला-कर बोल रहे थे, और लौंगी अपराधियों की भाँति सिर झुकाये खड़ी थी कि मनोरमा ने आकर कहा-वावूनी आये हुए हैं, आपसे कुछ कहना चाहते हैं ।

ठाकुर साहब की भौहें तन गयीं। बोले-कहना क्या चाहते होगे, रुपए मॉगने. श्राये होंगे। अच्छा, नाकर कह दो कि श्राते है, बैठिए ।