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कायाकल्प]
 

जाआ सकती हैं । मैं तो लोगों को अपनी पोर घूरते देखकर कट ही जाऊँगी।

मनोरमा-अच्छा, तो पड़ी-पड़ी सो, मैं जाती हूँ। अभी बहुत-सी तैयारियां करनी हैं। मनोरमा अपने कमरे में आयी और मेज पर बैठकर बड़ी उतावली में कुछ लिखने लगी कि दीवान साहब के आने की इत्तला हुई और एक क्षण में श्राकर वह एक कुरसी पर बैठ गये । मनोरमा ने पूछा-रियासत का बैंड तैयार है न ?

हरिसेवक-हाँ, उसे पहले ही हुक्म दिया जा चुका है ।

मनोरमा-जुलूस का प्रबन्ध ठीक है न ? मैं डरती हूँ कहीं भद्द न हो जाय ।

हरिसेवक-प्रबन्ध तो मैंने सब कर दिया है, पर इस विषय में रियासत की अोर से जो उत्साह प्रकट हो रहा है, वह शायद इसके लिए हानिकर हो । रियासतों पर हुक्काम की कितनी कड़ी निगाह होती है, यह आपको खूब मालूम है। मैं पहले भी कह चुका हूँ और अब भी कहता हूँ कि आपको इस मामले में खूब सोच-विचारकर काम करना चाहिए।

मनोरमा--क्या आप समझते हैं कि मैं बिना सोचे विचारे ही कोई काम कर बैठती हूँ? मैंने खूब सोच लिया है, बाबू चक्रधर चोर नहीं, डाकू नहीं, खूनी नहीं, एक सच्चे श्रादमी हैं। उनका स्वागत करने के लिए हुक्काम हमसे बुरा मानते हैं, तो मानें । हमें इसकी कोई परवा नहीं । नाकर सम्पूर्ण दल को तैयार कीजिए ।

हरिसेवक-श्रीमान् राजा साहब की तो राय है कि शहरवालों को जुलुस निकालने दिया जाय, हमारे सम्मिलित होने की जरूरत नहीं।

मनोरमा ने रुष्ट होकर कहा- राजा साहब से मैंने पूछ लिया है। उनकी राय वही है, जो मेरी है । अगर सन्मार्ग पर चलने में रियासत जब्त भी हो जाय, तो भी मैं उस मार्ग से विचलित न हूँगी । आपको रियासत के विषय में इतना चिन्तित होने की क्या जरूरत ?

दीवान साहब ने सजल नेत्रों से मनोरमा को देखकर कहा-वेटी, मैं तुम्हारे हो भले को कहता हूँ। तुम नहीं जानतीं जमाना कितना नाजुक है।

मनोरमा उत्तेजित होकर बोली-पिताजी, इस सदुपदेश के लिए मैं आपकी बहुत अनुगृहीत हूँ, लेकिन मेरी श्रात्मा उसे ग्रहण नहीं करती। मैंने सर्प की भाँति धन गशि पर बैठकर उसकी रक्षा करने के लिए यह पद नहीं स्वीकार किया है, बल्कि अपनी आत्मोन्नति और दूसरों के उपकार के लिए ही। अगर-रियासत इन दो में एक काम भी न आये, तो उसका रहना ही व्यर्थ है। अभी ७ बजे हैं । ८ बनते-बनते आपको स्टेशन पहुँच जाना चाहिए । मैं ठीक वक्त पर पहुँच जाऊँगी । जाइये!

दोवान साहब के जाने के बाद मनोरमा फिर मेज पर बैठकर लिखने लगी। यह वह भाषण था, जो वह चक्रघर के स्वागत के अवसर पर देना चाहती थी। वह लिखने में इतनी तल्लीन हो गयी थी कि उसे राबा साहब के आकर बैठ जाने की उस वक्त तफ खबर न हुई, जब तक कि उन्हें उनके फेफड़ों ने खाँसने पर मजबूर न कर