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[कायाकल्प
 

चक्रधर—तुम्हें अकेली छोड़कर?

अहल्या—डर क्या है?

चक्रधर—चलो। रात को कोई आकर लूट ले, तो चिल्ला भी न सको। कितनी बार सोचा कि चलकर अम्माँ को देख आऊँ पर कभी इतने रुपए ही नहीं मिलते। अब बताओ, इन्हें रुपए कहाँ से भेजूँ?

अहल्या—तुम्हीं सोचो, जो वैरागी बनकर बैठे हो। तुम्हें वैरागी बनना था, तो नाहक गृहस्थी के जंजाल में फँसे। मुझसे विवाह करके तुम सचमुच बला में फँस गये। मैं न होती, तो क्यों तुम यहाँ आते और क्यों यह दशा होती? सबसे अच्छा है, तुम मुझे अम्माँ के पास पहुँचा दो। अब वह बेचारी अकेली रो-रोकर दिन काट रही होंगी। जाने से निहाल हो जायँगी।

चक्रधर—हम और तुम दोनों क्यों न चले चलें?

अहल्या—जी नहीं, दया कीजिए। आप वहाँ भी मेरे प्राण खायँगे और बेचारी अम्माँजी को रुलायेंगे! मैं झूठों भी लिख दूँ कि अम्माँजी, मैं तकलीफ में हूँ, तो तुरंत किसी को भेजकर मुझे बुला लें।

चक्रधर—मुझे बाबूजी पर बड़ा क्रोध आता है। व्यर्थ मुझे तंग करते हैं। अम्माँ की बीमारी तो बहाना है, सरासर बहाना।

अहल्या—यह बहाना हो या सच हो, ये पचीसों रुपए भेज दो। बाकी के लिए लिख दो कोई फिक्र करके जल्द ही भेज दूँगा। तुम्हारी तकदीर में इस साल जड़ावल नहीं लिखा है।

चक्रधर—लिखे देता हूँ, मैं खुद तंग हूँ, आपके पास कहाँ से भेजूँ?

अहल्या—ऐ हटो भी, इतने रुपयों के लिए मुँह चुराते हो। भला, वह अपने दिल में क्या कहेंगे। ये रुपए चुपके से भेज दो।

चक्रधर कुछ देर तक तो मौन धारण किये बैठे रहे, मानो किसी गहरी चिन्ता में हों। एक क्षण के बाद बोले—किसी से कर्ज लेना पड़ेगा, और क्या।

अहल्या—नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, कर्ज मत लेना। इससे तो इन्कार कर देना ही अच्छा है।

चक्रधर—किसी ऐसे महाजन से लूँगा, जो तकादे न करेगा। अदा करना बिलकुल मेरी इच्छा पर होगा।

अहल्या—ऐसा कौन महाजन है, भई? यहीं रहता है? कोई दोस्त होगा? दोस्त से तो कर्ज लेना ही न चाहिए। इससे तो महाजन कहीं अच्छा। कौन है, जरा उनका नाम तो सुनूँ?

चक्रधर—अजी, एक पुराना दोस्त है, जिसने मुझसे कह रखा है कि तुम्हें जब रुपए की कोई ऐसी जरूरत आ पड़े, जो टाले न टल सके, तो तुम हमसे माँग लिया करना, फिर जब चाहे दे देना।