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कायाकल्प]
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अहल्या—कौन है, बताओ, तुम्हें मेरी कसम।

चक्रधर—तुमने कसम रखा दी, यह बड़ी मुश्किल आ पड़ी। वह मित्र रानी मनोरमा है। उन्होंने मुझे घर से चलते समय एक छोटा-सा बेग दिया था। मैंने उस वक्त तो खोला नहीं; गाड़ी में बैठकर खोला, तो उसमें पाँच हजार रुपयों के नोट निकले। सब रुपए ज्यों के त्यों रखे हुए हैं।

अहल्या—और तो कभी नहीं निकाला?

चक्रधर—कभी नहीं, यह पहला मौका है।

अहल्या—तो भूलकर भी न निकालना।

चक्रधर—लालाजी जिन्दा न छोड़ेंगे, समझ लो।

अहल्या—साफ कह दो, मैं खाली हाथ हूँ, बस। रानीजी की अमानत किसी मोके से लौटानी होगी। अमीरों का एहसान कभी न लेना चाहिए, कभी-कभी उसके बदले में अपनी आत्मा तक बेचनी पड़ती है। रानीजी तो हमे बिलकुल भूल ही गयीं। एक खत भी न लिखा।

चक्रधर—आजकल उनको अपने घर के झगड़ों ही से फुरसत न मिलती होगी। राजा साहब से विवाह करके अपना जीवन ही नष्ट कर दिया।

अहल्या—हृदय बड़ा उदार है।

चक्रधर—उदार! यह क्यों नहीं कहती कि अगर उनकी मदद न हो, तो प्रान्त की कितनी ही सेवा संस्थाओं का अन्त हो जाय। प्रान्त में यदि ऐसे लगभग दस प्राणी हो जायँ, तो बड़ा काम हो जाय।

अहल्या—ये रुपए लालाजी के पास भेज दो, तब तक और सरदी का मजा उठा लो।

अहल्या उस दिन बड़ी रात तक चिन्ता में पड़ी रही कि जड़ावल का क्या प्रबन्ध हो। चक्रधर ने सेवा कार्य का इतना भारी बोझ अपने सिर ले लिया था कि उनसे अधिक धन कमाने की आशा न की जा सकती थी। बड़ी मुश्किलों से रात को थोड़ा-सा समय निकालकर बेचारे कुछ लिख-पढ़ लेते थे। धन की उन्हें चेष्टा हो न थी। इसे वह केवल जीवन का उपाय समझते थे। अधिक धन कमाने के लिए उन्हें मजबूर करना उन पर अत्याचार करना था। उसने सोचना शुरू किया, मैं कुछ काम कर सकती हूँ या नहीं। सिलाई, और बूटे-कसीदे का काम वह खूब कर सकती थी, पर चक्रधर को यह कब मंजूर हो सकता था कि वह पैसे के लिए यह काम करे? एक दिन उसने एक मासिक पत्रिका में अपनी एक सहेली का लेख देखा। दोनों आगरे में साथ-साथ पढ़ती थीं। अहल्या हमेशा उससे अच्छा नम्बर पाती थी। यह लेख पढ़ते ही अहल्या की वही दशा हुई, जो किसी असील घोड़े को चाबुक पड़ने पर होती है। वह कलम लेकर बैठ गयी और उसी विषय की आलोचना करने लगी, जिस पर उसकी सहेली का लेख था। वह इतनी तेजी में लिख रही थी, मानो भागते हुए विचारों को समेट रही हो। शब्द और वाक्य आप-ही-आप निकलते चले आते। आध घण्टे में उसने चार-