पृष्ठ:कायाकल्प.djvu/२२४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कायाकल्प]
२३९
 

थी। एक पण्डित कोई कथा कह रहे थे; लेकिन श्रोताओं के कान उसी घण्टी की ओर लगे थे, जो ठाकुरजी की पूजा की सूचना देगी और जिसके बाद तर माल के दर्शन होंगे। सहसा राजा साहब ने आकर ठाकुरजी के सामने बालक को बैठा दिया और खुद साष्टांग दण्डवत् करने लगे। इतनी श्रद्धा से उन्होंने अपने जीवन में कभी ईश्वर की प्रार्थना न की थी। आज उन्हें ईश्वर से साक्षात्कार हुआ। उस अनुराग में उन्हें समस्त संसार आनंद से नाचता हुआ मालूम हुआ। ठाकुरजी स्वयं अपने सिंहासन से उतरकर बालक को गोद में लिये हुए हैं। आज उनकी चिर-संचित कामना पूरी हुई, और इस तरह पूरी हुई, जिसकी उन्हें कभी आशा भी न थी। यह ईश्वर की दया नहीं तो और क्या है? पुत्र-रत्न के सामने संसार की सम्पदा क्या चीज है? अगर पुत्र-रत्न न हो, तो संसार की सम्पदा का मूल्य ही क्या है, जीवन की सार्थकता ही क्या है, कर्म का उद्देश्य ही क्या है? अपने लिए कौन दुनिया के मनसूबे बाँधता है? अपना जीवन तो मनसूबों में ही व्यतीत हो जाता है, यहाँ तक कि जब मनसूबे पूरे होने के दिन पाते हैं, तो हमारी संसार-यात्रा समाप्त हो चुकी होती है। पुत्र ही आकाक्षाओं का स्रोत, चिन्ताओं का आगार, प्रेम का बन्धन और जीवन का सर्वस्व है। वही पुत्र आज विशालसिंह को मिल गया था। उसे देख-देखकर उनकी आँखें आनन्द से उमड़ी जाती थीं, हृदय पुलकित हो रहा था। इधर अबोध बालक को छाती से लगाकर उन्हें अपना बल शतगुण होता हुआ ज्ञात होता था। अब उनके लिए संसार ही स्वर्ग था।

पुजारीने कहा—भगवान् राजकुँवर को चिरञ्जीव करें!

राजा ने अपनी हीरे की अँगूठी उसे दे दी। एक बाबाजी को इसी आशीर्वाद के लिए १०० बीघे जमीन मिल गयी।

ठाकुरद्वारे से जब वह घर में आये, तो देखा कि चक्रधर आसन पर बैठे भोजन कर रहे हैं, और मनोरमा सामने खड़ी खाना परस रही है। उसके मुख-पटल पर हार्दिक उल्लास की कान्ति झलक रही थी। कोई यह अनुमान ही न कर सकता था कि यह वही मनोरमा है, जो अभी दस मिनट पहले मृत्यु शय्या पर पड़ी हुई थी।


३१

यौवन-काल जीवन का स्वर्ग है। बाल्यकाल में यदि हम कल्पनाओं के राग गाते हैं, तो यौवन-काल में हम उन्हीं कल्पनाओं का प्रत्यक्ष स्वरूप देखते हैं, और वृद्धावस्था में उसी स्वरूप का स्वप्न। कल्पना अपंगु होती है, स्वप्न मिथ्या, जीवन का सार केवल प्रत्यक्ष में है। हमारी दैहिक और मानसिक शक्ति का विकास यौवन है। यदि समस्त संसार की सम्पदा एक ओर रख दी जाय, और यौवन दूसरी ओर तो ऐसा कौन प्राणी है, जो उस विपुल धनराशि की ओर आँख उठाकर भी देखे। वास्तव में यौवन ही जीवन का स्वर्ग है, और रानी देवप्रिया की-सी सौभाग्यवती और कौन होगी, जिसके लिए यौवन के द्वार फिर से खुल गये थे।

सन्ध्या का समय था। देवप्रिया एक पर्वत की गुफा में एक शिला पर अचेत पड़ी