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[कायाकल्प
 

हुई थी। महेन्द्र उसके मुख की ओर आशापूर्ण नेत्रों से देख रहे थे। उनका शरीर बहुत दुर्बल हो गया है, मुख पीला पड़ गया है और आँखें भीतर घुस गयी हैं, जैसे कोई यक्ष्मा का रोगी हो, यहाँ तक कि उन्हें साँस लेने में भी कष्ट होता है। जीवन का कोई चिह्न है, तो उसके नेत्रों में आशा की झलक है। आज उनकी तपस्या का अन्तिम दिन है, आज देवप्रिया का पुनर्जन्म होगा, सूखा हुआ वृक्ष नव-पल्लवों से लहरायेगा, आज फिर उसके यौवन-सरोवर में लहरें उठेंगी! आकाश में कुसुम खिलेंगे। वह बारबार उसके चेतनाशून्य हृदय पर हाथ रखकर देखते हैं कि रक्त का संचार होने में कितनी देर है, और जीवन का कोई लक्षण न देखकर व्यग्र हो उठते हैं। इन्हें भय हो रहा है, मेरी तपस्या निष्फल तो न हो जायगी।

एकाएक महेन्द्र चौंककर उठ खड़े हुए। आत्मोल्लास से मुख चमक उठा। देवप्रिया की हृत्तन्त्रियों में जीवन के कोमल संगीत का कम्पन हो रहा था। जैसे वीणा के अस्फुट स्वरों से शनैः-शनैः गान का स्वरूप प्रस्फुटित होता है, जैसे मेघ-मण्डल से शनै:शनैः इन्दु की उज्ज्वल छवि प्रकट होती हुई दिखायी देती है, उसी भाँति देवप्रिया के श्री-हीन, संज्ञा-हीन, प्राण-हीन मुखमण्डल पर जीवन का स्वरूप अंकित होने लगा। एक क्षण में उसके नीले अधरों पर लालिमा छा गयी, आँखें खुल गयीं, मुख पर जीवन श्री का विकास हो गया। उसने एक अँगड़ाई ली और विस्मित नेत्रों से इधर-उधर देखकर शिला-शैया से उठ बैठी। कौन कह सकता था कि वह महानिद्रा को गोद से निकलकर आयी है? उसका मुख-चन्द्र अपनी सोलहों कलाओं से आलोकित हो रहा था। यह वही देवप्रिया थी, जो आशा और भय से काँपता हुआ हृदय लिये आज से चालीस वर्ष पहले पति गृह में आयी थी। वही यौवन का माधुर्य था, वही नेत्रों को मुग्ध करने वाली छवि थी, वही सुधामय मुस्कान, वही सुकोमल गात। उसे अपने पोर-पोर में नये जीवन का अनुभव हो रहा था, लेकिन कायाकल्प हो जाने पर भी उसे अपने पूर्वजीवन की सारी बातें याद थीं। वैधव्य-काल की विलासिता भीषण रूप धारण करके उसके सामने खड़ी थी। एक क्षण तक लज्जा और ग्लानि के कारण वह कुछ बोल न सकी। अपने पति की इस प्रेम-मय तपस्या के सामने उसका विलास-मय जीवन कितना घृणित, कितना लज्जास्पद था!

महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा—प्रिये, आज मेरा जीवन सफल हो गया। अभी एक क्षण पहले तुम्हारी दशा देखकर मैं अपने दुस्साहस पर पछता रहा था।

देवप्रिया ने महेन्द्र को प्रेम मुग्ध नेत्रों से देखकर कहा—प्राणनाथ, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसका धन्यवाद देने के लिए मेरे पास शब्द ही नहीं हैं।

देवप्रिया को प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के चरणों पर सिर रख दूँ और कहूँ, कि तुमने मेरा उद्धार कर दिया, मुझे वह अलभ्य वस्तु प्रदान कर दी, जो आज तक किसी ने न पायी थी, जो सर्वदा से मानव-कल्पना का स्वर्ण स्वप्न रही है, पर संकोच ने जबान बन्द कर दी।