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कायाकल्प]
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महेन्द्र—सच कहना, तुम्हें विश्वास था कि मैं तुम्हारा कायाकल्प कर सकूँगा?

देवप्रिया—प्रियतम, यह तुम क्यों पूछते हो? मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास न होता, तो आती ही क्यों?

देवप्रिया को अपनी मुख-छवि देखने की बड़ी तीव्र इच्छा हो रही थी। एक शीशे के टुकड़े के लिए इस समय वह क्या कुछ न दे डालती?

सहसा महेन्द्र फिर बोले—तुम्हें मालूम है, इस क्रिया में कितने दिन लगे?

देवप्रिया—मैं क्या जानूँ, कि कितने दिन लगे?

महेन्द्र—पूरे तीन साल।

देवप्रिया—तीन साल। तीन साल से तुम मेरे लिए यह तपस्या कर रहे हो?

महेन्द्र—तीन क्या, अगर तीस साल भी यह तपस्या करनी पड़ती, तो भी मैं न घबराता।

देवप्रिया ने सकुचाते हुए पूछा—ऐसा तो न होगा कि कुछ ही दिनों में यह 'चार दिन की चटक चाँदनी फिर अँधेरा पाख' हो जाय?

महेन्द्र—नहीं प्रिये, इसकी कोई शंका नहीं।

देवप्रिया—और हम इस वक्त हैं कहाँ?

महेन्द्र—एक पर्वत की गुफा में। मैंने अपने राज्याधिकार मन्त्री को सौंप दिये और तुम्हें लेकर यहाँ चला आया। राज्य की चिन्ता में पड़कर मैं यह सिद्वि कभी न प्राप्त कर सकता था। तुम्हारे लिए मैं ऐसे-ऐसे कई राज्य त्याग सकता था।

देवप्रिया को अब ऐसी वस्तु मिल गयो थी, जिसके सामने राज्य-वैभव की कोई हस्ती न थी। वन्य जीवन की कल्पना उसे अत्यन्त सुखद जान पड़ी। प्रेम का आनन्द भोगने के लिए, स्वामी के प्रति अपनी भक्ति दिखाने के लिए यहाँ जितने मौके थे, उतने राजभवन में कहाँ मिल सकते थे? उसे विलास की लेशमात्र भी आकांक्षा न थी, वह पति-प्रेम का आनन्द उठाना चाहती थी। प्रसन्न होकर बोली—यह तो मेरे मन की बात हुई।

महेन्द्र ने चकित होकर पूछा—मुझे खुश करने के लिए यह बात कह रही हो या दिल से? मुझे तो इस विषय में बड़ी शंका थी।

देवप्रिया—नहीं प्राणनाथ, दिल से कह रही हूँ। मेरे लिए जहाँ तुम हो, वहीं सब कुछ है।

महेन्द्र ने मुस्कराकर कहा—अभी तुमने इस जीवन के कष्टों का विचार नहीं किया। ज्येष्ठ-वैशाख को लू और लपट, शीत-काल की हड्डियों में चुभनेवाली हवा और वर्षा की मूसलधार दृष्टि की कल्पना तुमने नहीं की। मुझे भय है कि शायद तुम्हारे कोमल शरीर उन कष्टों को न सह सकेगा।

देवप्रिया ने निश्शंक भाव से कहा—तुम्हारे साथ मैं सब कुछ आनन्द से सह सकती हूँ।

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