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कायाकल्प]
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शंखधर उससे पूछता रहता है—अम्माँ, बाबूजी कब आयेंगे? वह क्यों चले गये, अम्माँजी? आते क्यों नहीं? तुमने उनको क्यों जाने दिया, अम्माँजी? तुमने हमको उनके साथ क्यों नहीं जाने दिया? तुम उनके साथ क्यों नहीं गयीं, अम्माँ? बताओ, बेचारे अकेले न जाने कहाँ पड़े होंगे। मैं भी उनके साथ जंगलों में घूमता! यों अम्माँ, उन्होंने बहुत विद्या पढ़ी है? रानी अम्माँ कहती हैं, वह आदमी नहीं, देवता हैं। क्यों अम्माँजी, क्या वह देवता हैं? फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है। शंखधर कभी कभी अकेले बैठकर रोता है! कभी-कभी अकेले बैठा सोचा करता है कि पिताजी कैसे आयेंगे।

शंखधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी नही भरता। वह रोज अपनी दादी के पास जाता है और वहाँ उनकी गोद में बैठा हुआ घण्टों उनकी बातें सुना करता है। चक्रधर की पुस्तकों को वह उलट-पुलटकर देखता है और चाहता है कि मैं भी जल्दी से बड़ा हो जाऊँ और ये किताबें पढ़ने लगूँ। निर्मला दिन-भर उसकी राह देखा करती है। उसे देखते हो निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहल्या का मुँह भी वह नहीं देखना चाहती। कहती है, उसी ने मेरे लाल को घर से विरक्त कर दिया। बेचारा न जाने कहाँ मारा-मारा फिरता होगा। भोला-भाला गरीब लड़का इस विलासिनी के पंजे में फँसकर कहीं का न रहा। अब भले रोती है। मुंशी वज्रधर उससे बार-बार अनुरोध करते हैं कि चलकर जगदीशपुर में रहो; पर वह यहाँ से जाने पर राजी नहीं होती। उससे अपना वह छोटा-सा घर नहीं छोड़ा जाता।

मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपए महीना वसीका मिला है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है। इसलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर ही पर रहते हैं। शराब को मात्रा तो धन के साथ नहीं बढ़ी, बल्कि और घट गयी है; लेकिन संगीत प्रेम बहुत बढ़ गया है। सारे दिन उनके विशाल कमरे में गायनाचार्यों की बैठक रहती है। मुहल्ले में अब कोई गरीब नहीं रहा। मुंशीजी ने सबको कुछ न कुछ महीना बाँध दिया है। उनके हाथ में पैसा कभी नहीं टिका। अब तो और भी नही टिकता। उनकी मनोवृत्ति भक्ति की ओर नहीं है, दान को दान समझकर वह नहीं देते, न इसलिए देते हैं कि उस जन्म में इसका कुछ फल मिलेगा। वह इसलिए देते हैं कि उनकी यह आदत है। यह भी उनका राग है, इसमें उन्हें आनन्द मिलता है। वह अपनी कीर्ति भी नहीं सुनना चाहते; इसलिए जो कुछ देते हैं, गुप्त रूप से देते हैं। वह अब भी प्रायः खाली-हाथ रहते हैं और रुपयों के लिए मनोरमा की जान खाते रहते हैं; बिगड़ बिगड़कर पत्र-पर पत्र लिखते हैं, जाकर खोटी-खरी सुना आते हैं और कुछ न कुछ ले ही आते हैं। मनोरमा को भी शायद उनकी कड़वी बातें मीठी लगती हैं। वह उनकी इच्छा तो पूरी करती है; पर चार बातें सुनकर। इतने पर भी उन्हें कर्ज लेना पड़ता है। उनके लिए सबसे आनन्द का समय वह होता है, जब वह शङ्खधर को गोद