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कायाकल्प]
२७९
 

रोनेवाले रो-धोकर चुप हो गये थे। लौंगी शोकगृह से निकलकर छत पर गयी और सड़क की ओर देखने लगी। सैर करनेवालों की सैर तो खत्म हो चुकी थी; मगर मुसाफिरों की सवारियाँ कभी-कभी बँगले के सामने से निकल जाती थीं। लौंगी सोच रही थी, गुरुसेवक अब तक लौटे क्यों नहीं? गाड़ी तो यहाँ दो बजे आ जाती है। क्या अभी दो नहीं बजे? आते ही होंगे। स्टेशन की ओर से आनेवाली हर सवारी गाड़ी को वह उस वक्त तक ध्यान से देखती थी, जब तक वह बँगले के सामने से न निकल जाती। तब वह अधीर होकर कहती—अब भी नहीं आये!

और मनोरमा बैठी दीवान साहब के अन्तिम उपदेश का आशय समझने की चेष्टा कर रही थी। उसके कानों में ये शब्द गूँज रहे थे—'लौंगी को देखो!'


३७

जगदीशपुर के ठाकुरद्वारे में नित्य साधु-महात्मा आते रहते थे। शंखधर उनके पास जा बैठता और उनकी बातें बड़े ध्यान से सुनता। उसके पास चक्रधर की जो तसवीर थी, उससे मन-ही-मन साधुओं की सूरत का मिलान करता; पर उस सूरत का साधु उसे न दिखायी देता था। किसी की भी बातचीत से चक्रधर की टोह न मिलती थी।

एक दिन मनोरमा के साथ शंखधर भी लौंगो के पास गया। लौंगी बड़ी देर तक अपनी तीर्थयात्रा की चर्चा करती रही। शंखधर उसकी बात गौर से सुनने के बाद बोला—क्यों दाई, तो तुम्हें साधु संन्यासी बहुत मिले होंगे?

लौंगी ने कहा—हाँ बेटा, मिले क्यों नहीं। एक सन्यासी तो ऐसा मिला था कि हूबहू तुम्हारे बाबूजी से सूरत मिलती थी। बदले हुए भेस में ठीक तो न पहचान सकी; लेकिन मुझे ऐसा मालूम होता था कि वही हैं।

शङ्खधर ने बड़ी उत्सुकता से पूछा—जटा बड़ी-बड़ी थीं?

लौंगी—नहीं, जटा सटा तो नहीं थी, न वस्त्र ही गेरुआ रंग के थे। हाँ, कमण्डल अवश्य लिए हुए थे। जितने दिन मैं जगन्नाथपुरी में रही, बस एक बार रोज मेरे पास आकर पूछ जाते क्यों माताजी, आपको किसी बात का कष्ट तो नहीं है? और यात्रियों से भी वह यही बात पूछते थे। जिस धर्मशाला में मैं टिकी थी, उसी में एक दिन एक यात्री को हैजा हो गया। संन्यासीजी उसे उठवाकर अस्पताल ले गये और दबा करायी। तीसरे दिन मैंने उस यात्री को फिर देखा। वह घर लौटता था। मालूम होता था, संन्यासीजी अमीर हैं। दरिद्र यात्रियों को भोजन करा देते और जिनके पास किराये के रुपए न होते, उन्हें रुपए भी देते थे। वहाँ तो लोग कहते थे कि यह कोई बड़े राजा संन्यासी हो गये हैं। नोरा, तुमसे क्या कहूँ, सूरत बिलकुल बाबूजी से मिलती थी। मैंने नाम पूछा, तो सेवानन्द बताया। घर पूछा, तो मुस्कराकर बोले—सेवानगर। एक दिन मैं तो मरते-मरते बची। सेवानन्द न पहुँच जाते, तो मर ही गयी थी। एक दिन मैंने उनको नेवता दिया। जब यह खाने बैठे, तो मैने यहाँ का जिक्र छेड़ दिया। मैं देखना चाहती थी कि इन बातों से उनके दिल पर क्या असर होता है; मगर उन्होंने कुछ भी