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[कायाकल्प
 

न था। जो कुछ अधिकार था, वह पुत्र के नाते। जब पुत्र की कोई आशा न रही, तो अधिकार भी न रहा, पर यहाँ की सब चीजें उसी की थीं। उनपर उसका नाम खुदा हुआ था। अधिकार में स्वयं एक आनन्द है, जो उपयोगिता की परवा नहीं करता। उन वस्तुओं को देख-देखकर उसे गर्व होता था। लेकिन आज निर्मला के कठोर शब्दों ने उसमें ग्लानि और विवेक का सञ्चार कर दिया। उसने निश्चय किया, अब इन चीजों के लिए कभी न बोलेगी। अगर अम्माँजी को किसी चीज का मोह नहीं है, तो मैं ही क्यों करूँ? कोई आग लगा दे, मेरी बला से।

जब घर में कोई किसी चीज की चौकसी करनेवाला न रहा, तो चारों ओर लूट मच गयी। कुछ मालूम न होता कि घर में कौन लुटेरा आ बैठा है; पर चीजें एक एक करके निकलती जाती थीं। अहल्या देखकर अनदेखी और सुनकर अनसुनी कर जाती थी; पर अपनी चीजों को तहस-नहस होते देखकर उसे दुःख होता था। उसका विराग मोह का दूसरा रूप था—वास्तविक रूप से भी भयंकर और दाहक।

इस तरह कई महीने गुजर गये; अहल्या का आशा दीपक दिन-दिन मन्द होता गया। वह कितना ही चाहती थी कि मोह बन्धन से अपने को छुड़ा ले, पर मन पर कोई वश न चलता था। उसके मन में बैठा हुआ कोई नित्य कहा करता था जब तक मोह में पड़ी रहोगी, पति-पुत्र के दर्शन न होंगे। पर इसका विश्वास कौन दिला सकता था कि मोह टूटते ही उसके मनोरथ पूरे हो जायँगे। तब क्या वह भिखारिणी होकर जीवन व्यतीत करेगी? सम्पत्ति के हाथ से निकल जाने पर फिर उसके लिए कौन आश्रय रह जायगा? क्या वह फिर अपने पिता के घर जा सकती थी? कदापि नहीं। पिता ने इतनी धूम-धाम से उसे विदा किया, इसका अर्थ ही यह था कि अब तुम इस घर से सदा के लिए जा रही हो। अहल्या बार-बार व्रत करती कि अब अपने सारे काम अपने हाथ से करूँगी, अब सदा एक ही जून भोजन किया करूँगी, मोटा-से-मोटा अन्न खाकर जीवन व्यतीत करूँगी, लेकिन उसमें किसी व्रत पर स्थिर रहने की शक्ति न रह गयी थी। जब उसके स्नान कर चुकने पर लौंडी उसकी साड़ी छाँटने चलती, तो वह उसे मना न कर सकती थी। जो काम आज १६ वर्षों से करती आ रही थी, उसके विरुद्ध आचरण करना उसे अब अस्वाभाविक जान पड़ता था, मोटा अनाज खाने का निश्चय रहते हुए भी वह स्वादिष्ट भोजन को सामने से हटा न सकती थी। विलासिता ने उसकी क्रिया-शक्ति को निर्बल कर दिया था।

यहाँ रहकर वह अपने उद्धार के लिए कुछ न कर सकेगी, यह बात शनैः-शनैः अनुभव से सिद्ध हो गयी।

लेकिन अब कहाँ जाय? जब तक मन की वृत्ति न बदल नाय, तीर्थ यात्रा पाखण्ड सा जान पड़ती थी। किसी दूसरी जगह अकेले रहने के लिए कोई बहाना न था, पर यह